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हुये भी अनन्त, निराकार होते हुये भी साकार एवं विश्वरूप धारण करने वाली; निर्गुण होते हुए भी त्रिगुणात्मिका सृष्टि स्वरूपा, भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली वह मातृ शक्ति सभी से वन्दनीय है। इस महादेवी को सर्वरूपा या सर्वव्यापक कहकर सम्पूर्ण सृष्टि उसीका स्वरूप बतलायी गई है।' इस सिद्धान्त के द्वारा शाक्तों ने प्रथम बार वेदान्तियों के जगत् के मिथ्यात्व के सिद्धान्त को परास्त किया एवं सृष्टिकर्ता के साथ २ उसको कृति को भी नित्य स्वीकार किया है शाक्तों का यह अद्वैत तत्व पूर्णतः नया है ।
मातृरूपा :
यह देवी मात स्वरूपा है। संसार के प्रत्येक प्राणी को माता के स्नेह की आवश्यकता प्रतीत होती है। वह प्राणी नितान्त अभागी है जिसे माता के अमृतरूप दुग्ध का पान करने को नहीं मिलता। सारे सुख, ऐश्वर्य माता की कृपा के बिना निरर्थक ही है। उसे लोकमाता, देवमाता, इन्द्रजननी, स्कन्दमाता, भूतमाता,
आदि २ नामों से पुकारा गया है तथा मातृत्व शक्ति को प्रेम, स्नेह,वात्सल्य की साक्षात् मूर्ति एवं पराकाष्ठा स्वीकार किया है। महाशक्ति की मातृत्वरूपा मंजुलमयी मूर्ति का दर्शन प्रत्येक व्यक्ति करता है, एवं उसके वरद हस्त की छत्रछाया में पलता है और अपना जीवन उमकी सेवा में अर्पित करता है। इस पुराण में देवी का बालहितकारी स्वरूप भी चित्रित किया गया है-बालानां हित काम्यया।'
तेज स्वरूपा देवी :
सभी शाक्त पुराणों में एकमत होकर कहा गया है कि देवताओं की सम्मिलित या संधात शक्ति का नाम देवी है। सभी देवताओं का बल,तेज, और पौरुष एक ही दिशा में कार्य करता है। वह है संसार की रक्षा एवं रचनात्मक कार्यों में योगदान-और इसी दिव्यता का नाम देवी या शक्ति होता है । दैत्यों, दानवों, राक्षसों और समाजविरोधी व्यक्तियों का पौरुष, विनाश और विघटन में लगा करता है और इन्हीं व्यक्तियों का नाश करने के लिये महाशक्ति अवतरित होती है। पुराणों में इसी सतत संघर्ष का नाम देवासुर संग्राम कहा गया है। इसी प्रसंग में यह कहा गया है कि देवताओं के तेज से देवी या महाशक्ति का प्रादुर्भाव हुआ है।' देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव जिस समय राक्षसों के वध के विषय में चिन्तित थे उसी समय एक तेजपुञ्ज उनके सामने प्रकट हुमा और कुछ देर पश्चात् देवी रूप में परिणत हो गया। इसी देवी का नाम कात्यायनी या काली पड़ा। यह शिव का अपना तेज था जो राक्षसों के संहार के लिये प्रकट हया था।
यह प्रसंग सर्वप्रथम हमें मार्कण्डेयपुराण के देवीमाहात्म्य में उपलब्ध होता है। यहां पर भगवान् विष्णु सर्वप्रथम अपने तेज को स्वयं से पृथक करते है और फिर सभी देवता अपना २ तेजोभाग
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१. देवीपुराण ३५.१३,३७.४६,७६ २. वही १.५२ ३. सप्तशती २/१३
४. देवीभागवत ७/३१/२५-५४ ५. देवीपु० १२६/४७-६० ६. सप्तशती २/६-१६