Book Title: Dev Dravya Nirnay
Author(s): Manisagar
Publisher: Naya Jain Mandir Indore

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Page 59
________________ [] ; और साधारण खाते का लाभ लेना होतो भगवान् की भक्ति के लाभ की आशा छोड दो. दोनों बातें परस्पर विरुद्ध होने से एकसाथ एकही : द्रव्यसे नहीं बन सकती. जिसमें भी साधारण खाते में बोला हुआ व्य तो देवद्रव्य में जा सकता है मगर भगवान् की भक्ति के निमित्त बोला हुआ द्रव्य देवद्रव्य होनेसे साधारण नहीं हो सकता. इसलिये भगवान् की भक्ति वगैरह धर्म कार्यों में पहिलेसे अन्य कल्पना करनेका बाल जीवोंको सिखलाने वाले धर्म के उच्छेदन करने के हेतुभूत बडे भारी अनर्थके दोषी बनते हैं. आज भगवान की भक्तिरूप स्वप्न के द्रव्यमें ऐसी कल्पना करी तो कल कोई भगवान् के मंदिर को गृहस्थी के घर बनाने की कल्पना करेगा तथा कोई अपनी आवश्यकता पडने पर मंदिर बेचकर द्रव्य इकट्ठा करनेकी कल्पना कर लेवेगा. और कोई तो भगवान् को चढाए हुए चावल, फल, नैवेद्य आदिक वस्तुओं में या मुनियों को वहोराए हुए वस्त्र - आहारादि में भी वैसी कल्पना करके पीछे अपने गरीब भाईयों के उपयोग में लानेका धंधा ले बैठेगा. इससे तो धर्म की मर्यादा उल्लंघन करनेका महान् अनर्थ खडा होगा. इसलिये देवगुरुकी भक्तिरूप धर्मकार्य में तो एकही दृष्टि रखना योग्य है. भविष्य में भयंकर अनर्थ की हेतुभूत' ऐसी कल्पना करनेका किसी भी भवभीरूको योग्य नहीं है. इस बातका विशेष विचार तत्त्वज्ञ पाठकगण स्वयं कर सकते हैं. १६ कई आचार्य उपाध्याय पन्यास व मुनिमहाराज भी स्वभ उतारने के द्रव्यको ज्ञान खाते में या साधारण खाते में रखवाकर पुस्तक लिखवाने में या लायब्रेरी पाठशाला वगैरह कार्यमें और गरीब श्रावकादिकको दिलाने वगैरह कार्य में खर्च करवाते हैं, मगर ऊपर के वृतांत से वह देवद्रव्य भक्षण व विनाशके दोषी बनते हैं इसलिये उन महाराजाओं को चाहिये कि आगेसे वैसा न करावें और अनाभोग से वैसा करवाया • होवे तो उसको सुधारने का उपयोग करना योग्य है.

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