Book Title: Dada Bhagvana Kaun
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 12
________________ दादा भगवान? दादा भगवान? दादाश्री : जहाँ सदैव प्रकाश हो। सब कुछ जानते हो, जानने के लिए कुछ भी शेष नहीं हो। ज्ञानी माने उजाला। उजाला माने किसी प्रकार का अंधेरा ही नहीं होता। और ज्ञानी वर्ल्ड में कभी-कभार एकाध होते हैं, दो नहीं होते। उनका जोड़ नहीं होता। जोड़ होने पर स्पर्धा होगी। ज्ञानी होना यह नेचरल एडजस्टमेन्ट (कुदरत की समायोजना) है। ज्ञानी, कोई अपने बलबूते पर नहीं हो पाता! ज्ञानीपुरुष तो मुक्त हुए होते हैं। अजोड़ होते हैं। कोई उनकी स्पर्धा नहीं कर सकता। क्योंकि स्पर्धा करनेवाला ज्ञानी नहीं होता। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अप्रतिबद्ध वीतरागों ने कहा है, कि जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से निरंतर अप्रतिबद्ध भाव से विचरते हैं, ऐसे ज्ञानीपुरुष के चरणार्विंद की भजना करने पर हल निकलेगा। कोई द्रव्य उन्हें बाँध नहीं सकता, कोई काल उन्हें बाँध नहीं सकता, किसी भाव से वे बँध नहीं पाते और न ही कोई क्षेत्र उन्हें बाँध सकता है। संसार में ये चार चीजें ही हैं, जिसे लेकर संसार खड़ा रहा है। ना राग-द्वेष, न त्यागात्याग ज्ञानी पुरुष किसका नाम कि जिन्हें त्याग अथवा अत्याग संभव नहीं, सहज भाव से होते हैं। वे राग-द्वेष नहीं करते हैं। उनकी विशेष विलक्षणता क्या होती है कि राग-द्वेष नहीं होता। दृष्टि हुई निर्दोष, देखा जग निर्दोष सारे संसार में मुझे कोई दोषित नज़र नहीं आता। मेरी जेब काटनेवाला भी मुझे दोषित नहीं दिखता। उस पर करुणा आयेगी। दया हमारे में नाम मात्र को नहीं होती! मनुष्यों में दया होती है, 'ज्ञानी पुरुष' में दया नहीं होती। वे द्वंद्व से मुक्त हुए होते हैं। हमारी दृष्टि ही निर्दोष हो गई होती है। यानी तत्त्वदृष्टि होती है, अवस्था दृष्टि नहीं होती। सभी में सीधा आत्मा ही नजर आये। (२) बाल्यावस्था माँ से पाया अहिंसा धर्म एक दिन हमारी मदर (माँ) से पछा कि. 'घर में खटमल हो गये हैं, आपको नहीं काटते क्या?' उत्तर में मदर कहती है, 'हाँ बेटा, काटते तो हैं पर वे दूसरे की तरह थोड़े ही साथ में टिफीन लेकर आते हैं कि 'हमें कुछ दीजिये, माई-बाप!' वे बेचारे कोई बर्तन लेकर तो नहीं आते, जितना खाना हो उतना खाकर चले जाते हैं। मैंने कहा, 'धन्य हैं माताजी आप! और आपके इस बेटे का भी धन्यभाग हैं!" हम तो खटमल को भी लहू पीने देते थे कि यहाँ आया है तो अब भोजन करके जा। क्योंकि हमारा यह हॉटेल (शरीर) ऐसा है कि यहाँ किसी को कोई कष्ट नहीं होना चाहिए, यही हमारा व्यवसाय ! इसलिए खटमलों को भी भोजन करवाया है। अब यदि उन्हें भोजन नहीं करवाते तो उसके लिए सरकार हमें थोड़े ही कोई दंड देनेवाली थी? हमें तो आत्मा की प्राप्ति करनी थी! सदैव चौविहार, सदैव कंदमूल त्याग, सदैव उबला हुआ पानी, यह सब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी! और इसी वजह, देखिये, यह प्राकट्य हुआ, सारा 'अक्रम विज्ञान' प्रकट हुआ! जो सारी दुनिया को स्वच्छ बना दे, ऐसा विज्ञान प्रकट हुआ है! माता के संस्कार ने मार खाना सीखलाया मेरी माताजी भी ऐसी थीं न! माताजी तो मुझे अच्छा सीखलाती थीं। बचपन में मैं एक लड़के को मार-पीट कर घर आया था। उस लड़के को खून निकाल आया था। माताजी को इसका पता चला, तो मुझसे सवाल करने लगी कि, 'बेटा, यह देख, उसे खुन निकला है। ऐसे ही तुझे कोई मारे तो खून निकलने पर मुझे तेरी दवाई करनी होगी कि नहीं? इस समय उस लड़के की माँ को भी उसकी दवाई करनी पड़ती होगी कि नहीं? और वह बेचारा कितना रोता होगा? उसको कितना दुःख होता होगा? इसलिए (तू आज से तय कर कि) तू मार खाकर आना पर कभी किसी को मार कर नहीं आयेगा। तू मार खाकर आना, मैं तेरी दवाई करूँगी।'

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