Book Title: Dada Bhagvana Kaun
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 15
________________ दादा भगवान? १९ प्रश्नकर्ता: आप स्कूल में घंटी बजने के बाद क्यों जाते थे? दादाश्री : ऐसा रौब ! मन में ऐसा गरूर पर वहाँ सीधे नहीं रहे तभी ऐसे टेढ़ापन करके देरी से जाते थे न ! सीधा आदमी तो घंटी बजने से पहले जाकर अपनी जगह पर बैठ जाए। प्रश्नकर्ता: रौब जमाना वह उलटा रास्ता कहलाये क्या ? दादाश्री : वह तो उलटा रास्ता ही कहलाये न! घंटी बजने के बाद हम जायें, जबकि मास्टरजी पहले आ चुके हों! यदि मास्टरजी देर से आये तो लाज़िम है, पर बच्चों को तो घंटी बजने से पहले ही आना चाहिए न ? पर ऐसा टेढ़ापन । कहेगा, 'मास्टरजी, अपने मन में क्या समझते हैं?' लीजिये !! अरे ! तुझे पढ़ाई करनी है कि लडाई करनी है? तब कहें, 'नहीं, पहले लडाई करनी है।' प्रश्नकर्ता : तो मास्टरजी आप से कुछ नहीं कह पाते थे क्या? दादाश्री : कह सकते थे, पर कह नहीं पाते थे। उसे मन में भड़क रहती थी कि बाहर पत्थर मारेगा तो सिर फोड़ देगा। प्रश्नकर्ता: दादाजी, आप इतने शरारती थे क्या? दादाश्री : हाँ, शरारती थे। हमारा माल ( प्रकृति स्वभाव) ही सारा शरारती ! टेढ़ा माल ! प्रश्नकर्ता : और ऐसा होते हुए भी यह 'ज्ञान' प्रकट हो गया यह तो आश्चर्य कहलाये । दादाश्री : 'ज्ञान' हो गया क्योंकि भीतर कोई मैल नहीं था न ! इस अहंकार का ही हर्ज था किन्तु ममत्त्व जरा सा भी नहीं था, लालच नहीं था। इसलिए इस दशा की प्राप्ति हुई। पर यदि कोई मेरा नाम लेता तो उसकी शामत आ जाती थी। इसलिए कुछ लोग पीछे से टिप्पणी किया करते थे कि इसका मिज़ाज बहुत है। तब कुछ ऐसा भी कहते थे, 'अरे, दादा भगवान? जाने दीजिये न, घमंडी है।' अर्थात् मेरे लिए कौन-कौन से विशेषणों का प्रयोग होता है इसकी मुझे जानकारी रहती थी। पर मुझे ममत्व नहीं था । यह प्रधान गुण था, उसी का प्रताप है यह! और यदि कोई ममत्ववाला सौ गुना सयाना रहा, तब भी संसार में गहराई तक डूबा होता है। हम ममत्व रहित इसलिए वास्तव में आनंद हो गया। यह ममत्व ही संसार है, अहंकार यह संसार नहीं है। २० बाद में मैंने भी अनुभव किया कि अब मैं सीधा हो गया हूँ। किसी को मुझे सीधा करने का कष्ट नहीं उठाना पड़े। प्रश्नकर्ता: दादाजी, आप सीधे कैसे हो गये? दादाश्री : लोगों ने ऐसे-वैसे शिकंजे में कसकर भी मुझे सीधा कर डाला। प्रश्नकर्ता : यह तो पिछले अवतारों में शुद्ध होता रहा था न ? दादाश्री : कितने ही अवतारों से यह सीधे होते आये हैं, तब कहीं जाकर इस अवतार में पूर्ण रूप से सीधा हो पाया। भाषा सीखने के बजाय भगवान में रूचि अंग्रेजी के मास्टरजी से मैंने कहा कि आप जो कहना चाहें कह सकते हैं पर मैं आपके यहाँ फँस गया हूँ। पंद्रह साल से पढ़ पढ़ करता हूँ पर अब तक मैट्रिक नहीं हो पाता। गिनती से शुरू करके पंद्रह साल हो गये पर मैट्रिक नहीं हो पाया। इन पंद्रह सालों में तो मैं भगवान खोज़ निकालता । इतने साल व्यर्थ में गँवाये! बिना वजह ए-बी-सी-डी सिखाते हैं। अन्य किसी की भाषा, विदेशीयों की भाषा सीखने के लिए मैट्रिक तक पढ़ना पड़े? यह कैसा पागलपन है? विदेश की भाषा सीखने में यहाँ मनुष्य की आधी जिन्दगी खत्म हो जाए! लघुत्तम सीखते, पायें भगवान अनंत अवतारों से वही का वही पढ़ते हैं और फिर आवृत्त हो जाता

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