Book Title: Dada Bhagvana Kaun
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 18
________________ दादा भगवान? दादा भगवान? दीजिये। इस पर मैंने समझा कि अब हमारी ग्रहदशा परिवर्तित हुई। धंधे में तो सब समझ आने लगे, फटाफट सब आ जाए। और हॉटल में जाने को मिले, चाय-पानी चलते रहें, सबकुछ चलता रहे और धंधा भी कान्ट्रैक्ट का, नंगा धंधा! ब्याहते समय भी मूर्छा नहीं की इच्छा थी। उनकी वह धारणा मिट्टी में मिल गई। मैंने मन ही मन सोचा कि ये लोग मुझे सूबेदार बनाना चाहते हैं, तो जो सर सूबेदार होगा मेरा, वह मुझे डाँटेगा। इसलिए मुझे सुबेदार नहीं बनना है। क्योंकि बड़ी मुश्किल से यह एक अवतार मिला है, वहाँ फिर डाँटनेवाले आ मिले। तो फिर यह जन्म किस काम का? हमें भोग-विलास की किसी चीज़ की तमन्ना नहीं है और वह आकर डाँट सुनाये यह कैसे बर्दाश्त किया जाए? जिन्हें भोगविलास की चीजें चाहिए, वे भले ही डाँट सुना करें। मुझे तो ऐसी किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। इसलिए मैंने ठान लिया कि पान की दुकान निकालेंगे हम, पर ऐसी डाँट सुनने से दूर रहेंगे। इसलिए मैंने तय किया था कि मैट्रिक में अनुत्तीर्ण ही होना है। इसलिए उस पर ध्यान ही नहीं देता था। प्रश्नकर्ता : योजनाबद्ध? दादाश्री : हाँ, योजनाबद्ध । इसलिए फेल हुआ वह भी योजनाबद्ध। मतलब कि नोन मैट्रिक। मैं वह सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स ऐसा बोलूँ, दी वर्ल्ड इज दी पजल इट सेल्फ, धेर आर टु व्यु पोईन्टस... ऐसा सब बोलूँ, इसलिए लोग सवाल करें कि 'दादाजी, आप कहाँ तक पढ़ें हैं?' वे तो ऐसा ही समझे कि दादाजी तो ग्रेज्युएट से आगे गये होंगे! मैंने कहा, 'भैया, इस बात को गुप्त ही रहने दीजिये, इसे खोलने में मज़ा नहीं आयेगा।' इस पर वे आग्रह करने लगे कि, 'बताइये तो सही, पढ़ने में आप कहाँ तक गये थे?' तब मैंने बताया कि, 'मैट्रिक फेल'। मैट्रिक फेल होने पर बड़े भैया कहने लगे, 'तुझे कुछ नहीं आता।' मैंने कहा, 'ब्रेन (दिमाग) खतम हो गया है।' इस पर उन्हों ने पूछा, 'पहले तो बहुत बढ़िया आता था न?' मैंने कहा, 'जो भी हो मगर ब्रेन जवाब दे गया है।' तब कहे, 'धंधा सँभालेगा क्या?' मैंने कहा, 'धंधे में क्या करूँगा, आप जितना कहेंगे उतना करता जाऊँगा।' परिणाम स्वरूप डेढ़ साल धंधा करने के बाद बड़े भैया कहने लगे कि, 'तू तो फिर से अव्वल नंबर लाया!' धंधे में रुचि पैदा हो गई, पैसा कमाने को मिला। यह तो सूबेदार होनेवाला था उसके बजाय यह उलटी राह चल निकला। इसलिए भैया तंग आ गये और सोचा कि इसे धंधे में लगा ब्याहते समय नया साफ़ा लगाया था, उस पर सेहरे का बोझ आने पर साफ़ा नीचे उतर आया और उतरते-उतरते आँखो के ऊपर आ गया, घुमकर जब देखा तो हीराबा (धर्मपत्नी) नज़र नहीं आई। जो शादी करने आया हो वह साहजिक रूप से दुल्हन की ओर देखेगा ही न? साजो-सामान नहीं देखता। क्योंकि पहले कन्या दिखाने की परंपरा नहीं थी। इसलिए जब लग्नमंडप में आती, तभी देख पाते। तब मेरे मुहाने पर वह बड़ा सेहरा आ गया। इसलिए देखना बंद हो गया। तब मुझे तुरंत ही विचार आ गया कि 'यह ब्याह तो रहे हैं, पर दो में से किसी एक को रँडापा तो आयेगा ही (यानी किसी एक की मृत्यु होने पर दोनों एक-दूसरे से बिछड ही जायेंगे), दोनों को रँडापा नहीं आनेवाला।' उस वक्त ऐसा विचार आया था मुझे वहाँ पर, यों ही छूकर चला गया। क्योंकि चेहरा नज़र नहीं आया, इसलिए यह विचार आया। अ...ह...ह...! 'उनको' 'गेस्ट' समझा मैं उन्नीस साल का था, तब मेरे यहाँ बेटे का जन्म हुआ। इसकी खशी में सारे फ्रेन्ड सर्कल (मित्रमंडल)को पेडे खिलाये थे और जब बेटे का देहांत हो गया तब भी पेड़े खिलाये थे। तब सब कहने लगे कि, 'क्या दूसरा आया?' मैंने कहा, 'पहले पेड़े खाइये फिर बताऊँगा कि क्या हुआ।' हाँ, वरना शोक के मारे पेड़े नहीं खाते, इसलिए पहले खुलासा नहीं किया और पेडे खिलाये। जब सभी ने खा लिए तब बताया कि, 'वह जो मेहमान आये थे न. वे चले गये!' इस पर कहने लगे कि, 'ऐसा कोई करता है क्या? और यह पेड़े खिलवाये आपने हमें!' यह तो हमें वमन करना पडे ऐसी हालत हो गई हमारी!' मैंने कहा, "ऐसा कुछ करने जैसा नहीं है।

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