Book Title: Dada Bhagvana Kaun
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 19
________________ दादा भगवान? दादा भगवान? वह मेहमान ही था, गेस्ट ही था। और गेस्ट के आने पर कहते हैं 'आइये, पधारिये' और जाते समय 'पधारना' कहें. और क्या झंझट करनी गेस्ट के साथ?" इस पर सबने कहा की, 'उसे थोड़े गेस्ट कहते हैं? वह तो आपका बेटा था।' मैंने कहा कि, 'मेरे लिए तो वह गेस्ट ही है।' फिर बेटी के जन्म पर भी यही बात दोहराई गई। सब भल गये और पेडे खा लिए। बेटी के देहांत पर भी पेड़े खाये! हमारे लोग कुछ याद थोडे ही रखनेवाले हैं? इन्हें भूलने में देर कितनी? लोगों को भलने में देर नहीं लगती। देर लगती है क्या? मूर्छित अवस्था जो ठहरी! मूर्छित अवस्था माने क्या, भूलने में देर ही नहीं लगती। फिर भी मित्रों ने माना, 'सुपर ह्युमन' प्रश्नकर्ता : अब आपने यह जो सत्संग शुरू किया वह किस उम्र में? आपने सभी को पेड़े खिलाये उसे सत्संग कहें? दादाश्री : नहीं, उसे सत्संग नहीं कहते। वह तो मेरा दर्शन है, एक तरह की सूझ है मेरी। सत्संग करीबन १९४२ से शुरू हुआ। बयालीस से माने आज उसे इकतालीस साल हुए (१९८३ में)। मलतः सत्संग की शुरूआत बयालीस से हुई। आठ में मेरा जन्म, माने मेरी चौंतीस साल की उम्र होगी। वैसे तो बत्तीस साल की उम्र से ही सत्संग शुरू हुआ था मतलब कि पहले लोगों को थोड़े-थोड़े वाक्य मिलते थे सही। बाईस साल की उम्र में ही मैंने मित्रों से कह दिया था कि. भाईयों आप लोग मेरा कोई कार्य कभी भी मत करना। अहंकार तो चोटी पर ही था, इसलिए कहा कि, 'आप अपना काम देर रात भी मझ से करवा जाना।' इस पर मित्रों ने आपत्ति जताई कि, 'ऐसा क्यों कहते हैं? हमारी-तुम्हारी करने की क्या ज़रूरत है?' ऐसा हुआ कि एक आदमी के यहाँ मैं रात बारह बजे गया था। इस पर उस भाई के मन में आया कि कभी इतनी रात गये बारह बजे तो आते नहीं और आज आये है, मतलब कुछ पैसे-वैसे की ज़रुरत होगी? अर्थात् उसने उलटा भाव किया। आपकी समझ में आता है न? मुझे कुछ नहीं चाहिए था। उसकी दृष्टि में मुझे अंतर नज़र आया। प्रतिदिन की जो दृष्टि थी वह दृष्टि आज बिगडी नज़र आई। ऐसा मेरी समझ में आने पर घर जाकर मैंने विश्लेषण किया। मुझे महसूस हुआ कि संसार के मनुष्यों की दृष्टि बिगड़ते देर नहीं लगती। इसलिए हमारे साथ जो लोग रहते हैं, उन्हें एक ऐसी निर्भयता प्रदान करें कि फिर किसी भी हालत में उनकी दष्टि में परिवर्तन नहीं आये। इसलिए मैं ने कह दिया कि, 'आप में से कोई भी मेरा कोई कार्य मत करना कभी। अर्थात मेरा डर आपके मन में नहीं होना चाहिए कि यह कुछ लेने आये होंगे।' तब कहे, 'ऐसा क्यों?' मैंने उत्तर दिया कि, 'मैं दो हाथवालों के पास से कुछ माँगने के हक में नहीं हूँ। क्योंकि दो हाथवाले खुद ही दु:खी हैं और वे सुख खोजते हैं। मैं उनसे कोई आशा नहीं करता हूँ। पर आप मुझसे आशा रखना क्योंकि आप तो खोजते हैं और आपको रजामंदी है। मुझसे आपका कार्य बिना झिझक करवा जाना, पर मेरा कोई कार्य मत करना।' ऐसा बोल दिया और निर्भय बना दिये। इस पर उन लोंगो ने क्या प्रतिभाव दिया कि 'बिना सुपर ह्युमन के कोई ऐसा बोल नहीं सकता।' अर्थात् वे क्या बोले, कि यह सुपर ह्युमन का स्वभाव है, ह्युमन का नेचर नहीं। निरंतर विचारशील दशा १९२८ में मैं सिनेमा देखने गया था, वहाँ मन में मुझे यह प्रश्न उठा था कि 'अरे! इस सिनेमा से हमारे संस्कारों की क्या दशा होगी? और इन लोगों की क्या हालत होगी?' फिर दूसरा विचार आया कि, 'क्या इस विचार का कोई हल है हमारे पास? हमारे पास कोई सत्ता है? हमें कोई सत्ता तो है नहीं, इसलिए यह विचार हमारे किसी काम का नहीं है। यदि सत्ता रही तो विचार काम आता, जो विचार सत्ता से परे हो, उसके पीछे लगे रहना वह तो अहंकार है।' बाद में दूसरा विचार आया कि, 'क्या यही होनेवाला है इस हिन्दुस्तान का?' उन दिनों ज्ञान नहीं हुआ था, ज्ञान तो १९५८ में हुआ। उससे पहले अज्ञान तो था ही न? अज्ञान कोई ले थोड़े ही गया था? ज्ञान नहीं था पर अज्ञान तो था ही पर उस समय अज्ञान में भी यह दिखाई दिया कि, 'जो इतनी जल्दी उलटी बात प्रचार कर सके,

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