Book Title: Dada Bhagvana Kaun
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 26
________________ दादा भगवान ? ४१ दादाश्री : सारा ब्रह्मांड नज़र आया ! यह जगत कैसे चल रहा है, कौन चलाता है, सब नज़र आया। ईश्वर क्या है, मैं कौन हूँ यह कौन है, यह सब किस आधार पर आ मिलता है, यह सब नज़र आया। फिर समझ में आ गया और परमानंद हो गया। फिर सारे रहस्य खुल गए ! शास्त्रों में पूर्ण रूप से लिखा नहीं होता। शास्त्रों में तो जहाँ तक शब्द पहुँचते हैं वहाँ तक का लिखा होता है और जगत तो शब्दों से बहुत आगे है। भीड़ में एकांत और प्रकट भये भगवान प्रश्नकर्ता : सूरत केस्टेशन पर जो अनुभूति हुई, जो एकदम डाइरेक्ट प्रकाश आया, वह अपने आप अनायास ही हुआ क्या? दादाश्री : हाँ, अनायास ही, अपने आप ही उत्पन्न हो गया। सूरत के स्टेशन पर एक बेन्च पर बैठा था, बहुत भीड़ थी, पर यह अनायास ही उत्पन्न हो गया ! प्रश्नकर्ता: तत्पश्चात् ? दादाश्री : फिर सब पूर्ण रूप से ही दिखाई दिया, तत्पश्चात् सारा परिवर्तन ही आ गया ! प्रश्नकर्ता: उस समय दुनिया के सारे लोग तो वहीं के वहीं ही होंगे न? दादाश्री : हाँ, फिर तो मनुष्यों के पेकिंग दिखाई देने लगे और पेकिंग के भीतर का माल भी दिखाई देने लगा। वेराईटीज ऑफ पेकिंग (तरह-तरह के पेकिंग) और माल (आत्मा) एक ही तरह का ! अर्थात् उसी क्षण सारा संसार ही भिन्न दिखाई दिया वहाँ पर । प्रश्नकर्ता: ज्ञान के पश्चात् व्यवहार का कार्य होता था क्या? दादाश्री : बेहतरीन होता था। पहले तो अहंकार व्यवहार को कलुषित करता था । प्रश्नकर्ता: पद में जो 'भीड़ में एकांत और कोलाहल में शुक्ल ४२ दादा भगवान ? ध्यान' लिखा है उसका यदि थोड़ा विवरण किया जाए तो? दादाश्री : 'भीड़ में एकांत' के माने क्या है कि मनुष्य एकांत में एकांत रूप से नहीं रह सकता है, क्योंकि उसका मन है न! इसलिए जहाँ भीड़ हो उसमें एकांत ! फिर 'कोलाहल में शुक्ल ध्यान' उत्पन्न हुआ। इर्दगिर्द इतना कोलाहल कि क्या कहें? लोगों की भीड़ थी और मैं अपने शुक्ल ध्यान में था । अर्थात् सारा संसार पूरा का पूरा मुझे ज्ञान में दिखाई दिया। जैसा है वैसा नज़र आया। प्रश्नकर्ता: ऐसी अवस्था कितनी देर के लिए रही? दादाश्री : एक ही घंटा! एक घंटे में तो सब एक्झेक्ट ही हो गया। फिर तो सारा परिवर्तन हुआ, वह नज़र आया। अहंकार तो मूल से ही गायब हो गया। क्रोध- मान-माया-लोभ सारी कमजोरियाँ चली गई। मैंने ऐसी तो आशा भी नहीं की थी। लोग मुझसे सवाल करते हैं कि 'आपको ज्ञान कैसे हुआ?' मैंने पूछा, 'आप नक़ल करना चाहते हैं तो इसकी नक़ल होना दुश्वार है। दिस इज बट नैचुरल (यह सहज प्राकृतिक है)! यदि नक़ल करने योग्य होता तो मैं ही बता देता कि भैया, मैं इस राह गया, इधर गया, उधर गया, इसलिए मुझे यह प्राप्त हुआ। और मैं जिस राह गया था न, उस राह पर इतना बड़ा पुरस्कार मिलना संभव ही नहीं था। मैं तो कुछ साधारण फाइव परसेन्ट (पाँच प्रतिशत) की आशा करता था कि यदि हमारी मेहनत फले तो इसमें से हमें एकाध प्रतिशत भी मिल जाए।' दिनांक से नहीं सरोकार प्रश्नकर्ता: दादाजी, आपको ज्ञान हुआ उस दिन तारीख कौन सी थी ? दादाश्री : वह साल तो अट्ठावन (१९५८) का था । पर तारीख तो, हमें क्या मालूम कि उसको नोट करने की नौबत आयेगी ! और कभी कोई नोट माँगेगा यह भी मालूम नहीं था न ! मैंने तो जाना कि अब हमारा हल निकल आया ।

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