Book Title: Dada Bhagvana Kaun
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 30
________________ दादा भगवान? दादा भगवान? पर एक आदमी कहने लगा कि, 'ऐसा क्यों बता देते हैं?' तब मैंने कहा कि, 'जिसे लोगों के पास से रुपया लोन(कर्ज) पर लेना हो वह गुप्त रखेगा। हमें कुछ लोन की ज़रूरत नहीं है। और यदि कोई देना चाहें तो सरेआम दे। हमारा तो ऑपन टु स्काय जैसा है। इसलिए कह देता कि इस साल बीस हजार का घाटा हुआ है। यह मैं ऑपन ही कह देता। झंझट ही नहीं न!' हिसाब मिला और चिंता समाप्त ज्ञान होने से पहले हमारे धंधे में एक बार क्या हआ कि एक साहब ने हमारा यकायक एकदम से दस हजार का नुकसान कर दिया. हमारा एक काम साहब ने यकायक नामंजूर कर दिया। उन दिनों दस हजार रुपये की बहुत बड़ी कीमत थी, आज तो दस हजार किसी गिनती में नहीं है न! मुझे उस दिन गहरा धक्का लगा और चिंता होने लगी, वहाँ तक बात जा पहुँची थी। तब उसी क्षण मुझे भीतर से आवाज सुनाई दी कि, 'इस धंधे में हमारी खुद की पार्टनरशीप कितनी?' उन दिनों हम दो पार्टनर थे, फिर मैंने हिसाब लगाया कि दो पार्टनर तो कागज़ पर हैं,पर वास्तव में कितने हैं? वास्तव में तो मेरी घरवाली, पार्टनर की वाइफ उसके बेटेबेटियाँ, ये सारे पार्टनर ही कहलाए न! तब मुझे लगा कि इन सभी में से कोई चिंता नहीं करता, तो मैं अकेला सारा बोझ अपने सिर पर क्यों लं? उस दिन मुझे इस विचार ने बचा लिया। बात सही है न? यदि घाटे की अपेक्षा करें तो? से अधिक जो मिल गये। यह तो धारणा हो चालीस हजार की और यदि बीस हजार मिले तो दुःखी-दु:खी हो जाए। देखिये, तरीका ही पागलों-सा है न! जीवन जीने का तरीका ही पागलों जैसा है न! और यदि पहले से घाटा ही निर्धारित करे उसके जैसा सुखिया तो और कोई नहीं होता। घाटे का ही उपासक हो, फिर जीवन में घाटा आनेवाला ही नहीं! मतभेद मिटाने मुसीबतें झेली साझीदार के साथ हमने पैंतालीस साल साझेदारी की, पर एक भी मतभेद नहीं हुआ। तब कितनी मुसीबतें झेलनी पड़ी होंगी? अंदरूनी मुसीबतें तो होती है न? क्योंकि इस दुनिया में मतभेद माने क्या? कि मुसीबतें झेलना। परिणाम स्वरूप, साझीदार ने देखे भगवान अर्थात् ज्ञान होने से पहले भी हमने मतभेद नहीं होने दिया था। खटमल के साथ भी मतभेद नहीं। खटमल भी बेचारे समझ गये थे कि यह बिना मतभेद के मनुष्य है, हम अपना क्वॉटा (हिस्सा) लेकर चलते बनें। प्रश्नकर्ता : पर आप जो दे दिया करते थे, वह पूर्व का सेटलमेन्ट (हिसाब चुकता) होता होगा कि नहीं, इसका क्या प्रमाण? दादाश्री : सेटलमेन्ट ही। यह कोई नई बात नहीं है। मगर सवाल सेटलमेन्ट का नहीं मगर अब नये सिरे से भाव बिगड़ना नहीं चाहिए। वह तो सेटलमेन्ट है, इफेक्ट (परिणाम) है पर इस समय नया भाव नहीं बिगड़ता। नया भाव हमारा पुख्ता हो कि यही करेक्ट (सही) है। प्रश्नकर्ता : इससे क्लेश में से मुक्ति भी रहे। दादाश्री : हाँ, सहन करने पर क्लेश में से मुक्ति भी रहे और सिर्फ क्लेश-मुक्ति ही नहीं, साथ ही सामनेवाला मनुष्य, साझीदार और उसके हमनें भी सारी जिन्दगी कॉन्ट्रेक्ट का धंधा किया है। तरह-तरह के कॉन्ट्रेक्ट किये हैं। उनमें समंदर में जेटियाँ भी बनाई हैं। अब वहाँ पर धंधे की शुरूआत में क्या करता था? जहाँ पर पाँच लाख का मुनाफ़ा होनेवाला हो वहाँ पहले से ही तय करता था कि यदि लाख रुपये मिल जाएँ तो काफ़ी है। वरना आखिर नफा-नुकसान नहीं हो और इन्कमटैक्स भरने जितना मिले और हमारा खर्चापानी निकल गया तो मानों बहुत हो गया। और बाद में तीन लाख मिले तब मन में कैसा आनंद रहेगा? क्योंकि धारणा

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