Book Title: Chitra Vichitra Jiva Sansar
Author(s): Ajaysagar
Publisher: Z_Aradhana_Ganga_009725.pdf

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Page 8
________________ (१) घम्मा, (२) वंसा, (३) सेला, (४) अंजना, (५) रिट्ठा, (६) मघा, (७) माघवई। नरकभूमियों का स्वरूप नरकावासों का आकार बड़ा विचित्र होता है। नरकावास अत्यंत अशुचि पदार्थों से विशेषतः अत्यंत दुर्गंधित चर्बी, मांस और खून के कीचड़ से भरी हुई है। नरकावासों का वर्ण, गंध, स्पर्शादि भी अशुभ है। नरकों में जो भी मांसादि पदार्थ है वे सब परमाधार्मिक देवों के द्वारा विकुर्वित है, बनाए हुए है। चौथी, पाँचवी, छठी और सातवीं नरकभूमियों में परमाधार्मिक देवता नहीं पा जाते हैं अतः वहाँ वैसी विकुर्वित वस्तुएँ तो नहीं हैं मगर यूं ही उन नरकभूमियों में अत्यंत दुःसह्य दुर्गंधि है। तीन प्रकार की वेदना नारकी जीवों को मुख्यतः तीन रीतियों से वेदना सहनी पड़ती है। (१) क्षेत्रजन्य वेदना (२) परस्परोदीरित वेदना (३) संक्लिष्ट अध्यवसायी परमाधार्मिक देवों द्वारा दी जाने वाली वेदना। पहली दो प्रकार की वेदना तो सातों नरक-भूमियों में पैदा होने वाले सभी नारकियों को एवं तीसरे प्रकार की वेदना पहली तीन नरक-भूमियों में पैदा होने वाले नारकी जीवों को भोगनी पड़ती है। नारकी जीवों के दुःखों का संक्षेप में स्वरूप नारकी जीवों को निमेष मात्र-आँख खोलने और मूंदने के बीच व्यतीत होने वाले काल जितना भी सुख नहीं है। इनका जन्म छोटे कंठ वाली कुंभिओं में होता है तो परमाधार्मिक देवता उन्हें खींच-खींच कर, टुकड़ों के रूप में निकालते हैं। जन्म के समय से लेकर मृत्यु काल तक उन्हें अतिशीत, अतिउष्म, अतितृष्णा, अतिक्षुधा और अतिभय आदि सैंकड़ों प्रकार के दुःख निरंतर भोगते रहने पड़ते हैं। सातों नरक-भूमियों में हर शुभ वस्तु भी अशुभ रूप में परिणत हो जाती है। इन्हें भूख, प्यास तो इतनी लगती है कि एक नारकी जीव संपूर्ण संसार के सकल पदार्थ खा लेने पर भी तृप्ति महसूस नहीं कर सकता; सभी सरोवरों, * धर्म की सुंदरता उसके स्वभावगत है, उधार की नहीं.

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