Book Title: Chitra Vichitra Jiva Sansar
Author(s): Ajaysagar
Publisher: Z_Aradhana_Ganga_009725.pdf

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Page 25
________________ उसमें भी निगोद से बाहर निकल कर प्रत्येक वनस्पति से लगाकर तिर्यंच, नरक, देव और मनुष्य गतियों में असंख्य काल तक घूम कर जीव पुनः अनंतकाल के लिए निगोद में चला गया. पुनः भवितव्यता के धक्के से बाहर आया, महत्तम असंख्यकाल तक घूमा और पुनः निगोद में चला गया. यही चक्र अलग-अलग तरीकों से अनंत बार चला और उसी के भाग के रूप में हमारे लिए यह आज भी चल रहा है. सर्वप्रथम तो अनंत भवों तक जीव को मनुष्य भव ही नहीं मिल पाया. अनंतकाल में एकाध बार मिल भी गया तो आर्यकुल न मिला. आर्यकुल मिला तो जैन धर्म नहीं मिला. ऐसा जन्म भी मिल गया तो जीव के सभी सुखों को दिलाने वाली धर्मगुरू की वाणी का श्रवण नहीं मिला. वो भी बड़ी दुर्लभता से मिला, तो धर्म की वे हितकारी बातें ही गले नहीं उतरी. और यदि समझ में भी आई तो श्रद्धा नहीं बैठी. श्रद्धा हुई तो उस धर्म का आचरण न हो पाया. और आचरण हुआ भी तो अतिचार भरपूर लगे - निरतिचार न हो पाया. बीच-बीच में पृथ्वीकाय आदि एकिन्द्रिय की धुरीयों पर असंख्य जन्म जीव बिताता रहा. इसी तरह बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चउरिन्द्रिय अपंग व मन-शून्य जन्मों की धुरीयों पर असंख्य काल तक झोले खाता रहा. जीव के हाथ में कुछ भी नहीं था. ठेठ पंचेंद्रियपने में भी जब जीव ने मन सहित का जन्म पाया तब कहीं जा कर उस के लिए धर्म के दरवाजे खुले भी, तो मिथ्यात्व के अंधकार में वे दरवाजे जीव को दिखे ही नहीं. हमारा यह परम सौभाग्य है कि हम आज तुलनात्मक रूप से बहोत ही अच्छी परिस्थिति में हैं कि हम मनुष्य है, आर्य हैं, जैन है, धर्मश्रवण भी मिलता है, श्रद्धा भी है, और शायद जीवन में यथाशक्य पालना भी है. तो चूकें नहीं और धर्म के माध्यम से जीवन को सफल कर लें. के कूए में कही फिसल नहीं जाओ. वहाँ से बाहर आ पाना जीव के हाथ की बात नहीं हैं.

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