Book Title: Chitra Vichitra Jiva Sansar
Author(s): Ajaysagar
Publisher: Z_Aradhana_Ganga_009725.pdf

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Page 24
________________ Q ७५ और वीतरागता को प्राप्त व्यक्ति सुख और दुःख को एक समान भाव से स्वीकारने वाला बन जाता है; अर्थात् सुख में हर्षित और दुःख में उद्विग्न नहीं होता । पू. आचार्य श्री धर्मपुरंधरसूरिजी के लेख का संक्षेप जीव के भव-भ्रमण का इतिहास यह हुई जीव के विविध स्वरूपों की कुछ झलक जीव यानि और कोई नहीं हमारा अपना ही जीव. अनुत्तर देवलोक और मोक्ष इन दो अवस्थाओं को छोड़ हमारा जीव सभी रूपों को अनंत अनंत बार जन्म ले चुका है. हर रूप की शक्य उच्च से नीच तक की प्रायः हर दशा को हम अनंती बार पा चुके है. हर रूप में कम-ज्यादा प्रमाण में अपने-अपने भरपूर दुःख है, और सुख का थोड़ा सा आभास है. सब से बड़ा दुःख तो यह है कि सुखाभास का इस हद तक का हम पर वर्चस्व है कि हमें उसके साथ में रहे हुए ढेर सारे दुःख, वे दुःख के रूप में लगभग लगते ही नहीं है और लगते भी है तो अत्यंत आवश्यक के रूप में लगते है. अतः हम उन दुःखों के पक्षधर हो कर उनके रक्षक - पोषक के रूप में हर हालत में खड़े रहते हैं. जीव को महत्तम व तीव्रतम दुःख होता है निगोद में आत्मगुणों के महत्तम घात (यही सच में सब से पीड़ादायक दुःख है, और जीव मिथ्यात्व, अविरति व अज्ञान नाम की विपरीतता और संवेदन हीनताओं के चलते इस दुःख का, कोमा में गए हुए व्यक्ति की तरह, अहसास भी नहीं कर सकता) से बिल्कुल जडवत् जीवन है वहाँ अनंतकाल से जीव वहीं पर एक श्वासोश्वास काल में साढ़े सत्रह भव के हिसाब से जन्म-मरण पाता रहा. कोई चारा नहीं. फिर भवितव्यता बलवान हुई, किसी एक जीव ने संसार का अंत किया और मोक्ष को पाया. बस उसी समय यह एक जीव निगोद के अव्यवहार राशि रूप आनादिअनंत चक्र से बाहर निकला और व्यवहार राशि में आया. अब जीव के लिए अन्य एकेन्द्रीय से पंचेंद्रिय तक के रस्ते खुले और निगोद रूप एक धुरी के भ्रमण को छोड़; देव, मनुष्य, तिर्यंच व नरक गति की ८४ लाख प्रकार की जीवों के उत्पन्न होने की योनियों की धुरीयों के बने विराट चक्र का अनंतकालीन भ्रमण प्रारंभ हुआ. पुस्तकों बिना का जीवन यानि खिड़की बिना का घर.

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