Book Title: Chitra Vichitra Jiva Sansar
Author(s): Ajaysagar
Publisher: Z_Aradhana_Ganga_009725.pdf

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Page 22
________________ e ७३ ७० का सदा अनुभव वेदनीय कर्म के कारण जीव अनुकूल एवं प्रतिकूल विषयों के कारण भौतिक, काल्पनिक और अस्थायी सुख दुःख का ही वेदन- करता रहता है; जबकि वेदनीय कर्म के क्षय होने पर जीव अव्याबाध सुख का सदा अनुभव करता रहता है। (४) मोहनीय कर्म - आत्मा का गुण है क्षायिक सम्यक्त्व । क्षायिक सम्यक्त्व अर्थात् अन॑तानुबंधी चारों कषायों एवं दर्शनमोहनीय कर्म की तीनों प्रकृतियों के क्षय से होने वाला तत्त्वरूचि रूप परिणाम क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है। यह समकीत जीव को एक ही बार प्राप्त होता है और सदा बना रहता है। अर्थात् प्राप्त हो जाने के बाद कभी जाता नहीं है। मोहनीय कर्म समकित गुण का घात करता है। मोहनीय कर्म के क्षय होने पर आत्मा में पूर्ण सम्यक्त्व क्षायिक सम्यक्त्व गुण प्रकट रहता है। (५) आयुष्य कर्म- आत्मा का गुण है अक्षय स्थिति, सदा एक ही स्वरूप में स्थित रहना; जबकि आयुष्य-कर्म के उदय का परिणाम है नियत काल तक एक गति में रहकर पुनः दूसरी गति में नियत, अमुक समय तक रहना; इस रीति से जन्म मरण और जीवन के चक्कर में जीव घूमता रहता है। आयुष्य कर्म के क्षय होने पर जीव पुनः पुनः कभी भी जन्म, मरण धारण नहीं कर पाता और लोक के अग्रभाग पर सदा के लिए स्थिर रहता है। अक्षय स्थिति के साथ ही उनकी अवगाहना भी अटल रहती है; अतः अटल अवगाहना भी सिद्धात्मा का गुण है। (६) नामकर्म- आत्मा का गुण हे अरूपीत्व नामकर्म के उदयानुसार जीव को अच्छे बुरे, छोटे बड़े, सुरूप, कुरूप सूक्ष्म बादरादि शरीर की प्राप्ति होती है। कार्मणादि शरीर के मिश्रण से जीव रूपी बन जाता है। नाम कर्म के क्षय से आत्मा अशरीरी बन जाती है: अशरीरी होते ही आत्मा अरूपी बन जाती है। रूप का संबंध शरीर से है। (७) गोत्र कर्म- आत्मा का गुण है अगुरुलघुत्व यानि न हल्का और न भारी; अशरीरी होने के कारण आत्मा न हल्की और न भारी रहती है। गुरु न होने के कारण आत्मा नीचे नहीं जा सकती और हल्की भी न होने के कारण आत्मा ऊर्ध्वगमन भी नहीं कर सकती। गोत्र कर्म के क्षय के कारण आत्मा में अगुरुलघुत्व गुण प्रकट हो जाता है। अब आत्मा अन्य हल्की या भारी वस्तुओं के व्यवधान दान से धन का क्या होता है। वह बढ़ता है.

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