Book Title: Chitra Vichitra Jiva Sansar Author(s): Ajaysagar Publisher: Z_Aradhana_Ganga_009725.pdf View full book textPage 6
________________ ५७ (२) स्थलचर- स्थल पर चलने-फिरने वाले जीव: चाहे वे एक खुर वाले अश्व आदि हों, चाहे वे दो खुर वाले बैल आदि हों, और चाहे वे गोल पैर वाले हाथी आदि हों, चाहे वे सनख नख सहित पैर वाले सिंहादि हों। स्थलचर जीव तीन प्रकार के होते हैं- (१) चतुष्पद (२) उरपरिसर्प (३) भुजपरिसर्प । अ. चतुष्पद- चार पैरों वाले पशु जैसे- गाय, भैंस, घोड़ा, गधा, बकरी, कुत्ता, बिल्ली, शेर आदि । ब. उरपरिसर्प- छाती के बल पर रेंगने वाले जीव जैसे- सर्प, अजगर, आसालिक, महोरग आदि। स. भुजपरिसर्प भुजाओं के बल पर चलने वाले जीव जैसे- गोह, चूहा, छिपकली, गिरगिट, नेवला दि । (३) खेचर - आकाश में उड़ने वाले जीव । ये चार प्रकार के होते हैं। सभी तियंच पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं। (१) संज्ञी, (२) असंज्ञी । जो जीव समनस्क दीर्घकालिकी संज्ञा से युक्त हों वे जीव संज्ञी और जो जीव अमनस्क - दीर्घकालिकी संज्ञा से रहित हों, वे असंज्ञी कहलाते हैं। सभी संज्ञी और असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं- (१) पर्याप्ता, (२) अपर्याप्ता । सच में जैसे जीव अनंत हैं वैसे ही उनकी बातें भी अनंत हैं। उनके विषय में जितना कहें वह कम ही है। हाँ, यह बात निश्चित है कि हम छद्मस्थ जितना जान पाएंगे, उससे अज्ञात व अज्ञेय अनंत गुणा अधिक ही शेष बचेगा। तिर्यंच गति में उत्पन्न होने के कारण पुत्ताइसु पडिबद्धा, अण्णाण - पमायसंगया जीवा । उप्पज्जति धण्णणियवणि बेगिदिएसु बहुं । भव-भावना १८५।। पुत्रादिकों के प्रति प्रतिबद्ध अत्यधिक आसक्त, अज्ञानी और प्रमादी जीव धनप्रिय वणिक् की तरह बार-बार एकेन्द्रियपने में जन्मते और मरते रहते हैं । जिणधम्मुवहासेणं, कामासत्तीइ हिययसढयाए । उम्मग्गदेसणाए सया वि केलीकिलतेण ।। लेट गो और लेट गोड सुख के ये दो मंत्र है.Page Navigation
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