Book Title: Chitra Vichitra Jiva Sansar
Author(s): Ajaysagar
Publisher: Z_Aradhana_Ganga_009725.pdf

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Page 12
________________ अल्प होती हैं। अकर्मभूमियों एवं अन्तर्वीपों में जो मत्तांग, भृत्तांग, त्रुटितांग, दीपांगादि दस प्रकार के कल्पवृक्ष पाए जाते हैं; युगलिक जीव उन्हीं से अपनी आवश्यकताएँ पूर्ण करते हैं। युगल-जोड़े के रूप में जन्म लेने के कारण ये युगलिक कहलाते हैं। योग्य आयु पाकर युगल ही आपस में पति-पत्नी बन जाते है। छ: मास आयु शेष रहने पर युगल एक नए युगल को जन्म देता है एवं कुछ नियत दिनों तक नवजात युगल का पालन-पोषण कर वे एक साथ ही मर जाते है। सम्मूर्छिम मनुष्य जन्म के चौदह अशुचि स्थान (१) उच्चरेसु-विष्टा में, (२) पासवणेसु-मूत्र में, (३) खेलेसु-कफ में, (४) सिंघाणेसु-नाक के मैल में, (५) वंतेसु-वमन में, (६) पित्तेसु-पित्त में, (७) पूएसु-पीप और दुर्गंध युक्त बिगड़े घाव से निकले हुए खून में, (८) सोणिएसु-शोणित खून में, (९) सुक्केसु-शुक्रवीर्य में (१०) सुक्केपुग्गलपरिसाडेसु-वीर्य के सूखे हुए पुद्गलों गीले होने में (११) विगयजीवकलेवरेसु - जीव रहित शरीर में (१२) थी-पुरीससंजोएसुस्त्री पुरुष के संयोग (समागम) में, (१३) णगरनिद्धमणेसु-नगर की मोरी में, (१४) सव्वेसु असुइट्ठाणेसु-सब अशुचि स्थानों में सम्मूर्छिम मनुष्य जन्म लेते है। मनुष्यायु बंधन के कारण चउहिं ठाणेहिं जीवा माणुस्साउयत्ताए कम्मं पगरेंति; तंजहा-पगतिभदत्ताए। पगतिविणीययाए। साणुक्कोसयाए। अमरिच्छताए।। स्था.४/४/३७३ ।। चार कारणों में जीव मनुष्य गति प्रायोग्य आयुष्य कर्म बाँधते हैं-(१) भद्रतासरल प्रकृति के कारण (२) विनीत प्रकृति के कारण (३) दयामय-व्यवहार के कारण (४) ईर्ष्या न करने के कारण। अज्जव-मद्दवजुतो, अकोहणो दोसवज्जिओ वाई। न य साहुगुणेसु ठिओ, मरिउं सो माणुसो होइ।। ऋजुता और मृदुता से युक्त, क्रोध और द्वेष से रहित, सत्यभाषी और जो साधु के योग्य गुणों में स्थित नहीं है (क्योंकि साधु और व्रतधारी श्रावक मरकर देव-गति में जाते हैं, अतः) ऐसा व्यक्ति मरकर मनुष्य बनता है। मनुष्य भव की उत्तमता का कारण सुर-नारयाण दुण्णि वि, तिरियाण हुंति गइ य चत्तारि। मणुआण पंच गई, तेणं चिअ उतमा मणुआ।। जीवन में हंसते रहना यह अच्छी बात है परंतु हंसीपात्र बने रहना यह बुटी हात है.*

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