Book Title: Chitra Vichitra Jiva Sansar
Author(s): Ajaysagar
Publisher: Z_Aradhana_Ganga_009725.pdf

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Page 17
________________ ६८ का इंद्र एक ही होता है; और ग्यारहवें एवं बारहवें देवलोक का भी इंद्र एक ही होता है। (२) सामानिक:- इंद्रत्व के सिवाय जो आयु आदि विषयों में इंद्र के समान ही हों; वे सामानिक देवता कहलाते हैं। इंद्र के लिए ये माता, पिता, गुरु के समान पूजनीय होते हैं। (३) त्रायस्त्रिंशः- मंत्री और पुरोहित जैसा कार्य करने वाले देवता। (४) पार्षद्य- इंद्र के मित्र देव। (५) आत्मरक्षकः- आचार-धर्म के पालनार्थ इंद्र के पीछे खड़े रहने वाले शस्त्रधारी देव। (६) लोकपालः- सीमा की सुरक्षा करने वाले देव । (७) अनीक:- सोनानायक और सैनिक स्वरूप देव । (८) प्रकीर्णक:- जनता की तरह रहने वाले देव। (९) आभियोगिक:- सेवक के रूप में रहने वाले देव । (१०) अंत्यजः- चांडाल की तरह रहने वाले देव। देवियों का जन्म दूसरे देवलोक तक ही होता है; अतः दूसरे देवलोक तक के देवी देवता मनुष्यों की तरह ही भोग-विलास में रत रहते हैं। मगर तीसरे और चौथे; पाँचवे और छठे; सातवें और आठवें; एवं नवमे से बारहवें देवलोक तक के देवों के मन में ज्यों ही विषय-सुख भोगने की इच्छा होती है त्यों ही अपने ज्ञान के माध्यम से उन-उन देवों की इच्छा जानकर; उत्तर-वैक्रिय रूप धारण कर; सभी प्रकार के हाव-भाव में निपुण, उत्तमोत्तम आभूषण वस्त्रादि धारण कर देवियाँ स्वयं उनके समीप पहुँच जाती हैं; और वे देवता उनके साथ क्रमशः स्पर्श, रूप शब्द तथा चिंतन मात्र से तृप्ति का अनुभव करते हैं; वे मनुष्यों की तरह विषय सेवन नहीं करते। कारण स्पष्ट ही है कि ज्यों-ज्यों मन में कामवासना की प्रबलता होती है त्यों-त्यों मन में आवेग बढ़ता है। आवेग जितना अधिक होता है उसे मिटाने के लिए प्रयास भी उतना ही अधिक करना पड़ता है। दूसरे देवलोक के देवों की अपेक्षा तीसरे देवलोक के देवों में और तीसरे की अपेक्षा चौथे देवलोक के देवों में; इस प्रकार उत्तरोत्तर देवलोक के देवों में * अविरत कुछ भी न करें तो भी पाप बांधता ही रहता है.

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