Book Title: Chitra Vichitra Jiva Sansar
Author(s): Ajaysagar
Publisher: Z_Aradhana_Ganga_009725.pdf

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Page 18
________________ Q ६९ काम-वासना कम होती रहती है। इसीलिए उन्हें काम-वासना से संबंधित सामग्री की आवश्यकता उतनी ही कम पड़ती है। नव ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरविमानवासी देवों के मन में तो अत्यंत मंद पुरुषवेद एवं अत्यंत प्रशम- सुख के कारण विषय-वासना संबंधी कोई भाव ही पैदा नहीं हो पाता । देवी देवता, भूख प्यास को अनुव नहीं करते हैं मगर वे आहारादि ग्रहण करते हैं। देवी देवता मनुष्य की तरह कवलाहारी नहीं होते बल्कि आहार की अभिलाषा होते ही उनके देह में शुभकर्मों के प्रभाव के कारण इष्ट, मनोज्ञ, आह्लादक आहार योग्य पुद्गलों का परिणमन स्वतः हो जाता है। चित्र विचित्र सिद्ध संसार परमात्मा ने एक अपेक्षा से जीवों के दो भेद बताए हैं- (१) सिद्ध (२) संसारी । जो जीव-अकर्मा यानि कर्म रहित है, वे सिद्ध और जो जीव सकर्मा-कर्मसहित है वे संसारी। सिद्ध और संसारी आत्मा में अंतर चारों गतियों में पाए जाने वाले एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव संसारी है और ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों का सर्वथा क्षय कर लोकाग्र में सदा स्थित रहने वाले जीव सिद्ध कहलाते हैं। संसारी जीव अपने कर्मों के अनुसार संसार यानि चौरासी लाख जीवयोनियों, चारों गतियों में घूमते हैं सभी संसारी जीवों में कर्मों के कारण ही भिन्नता पाई जाती है; जबकि कर्मों के सर्वथा अभाव के कारण सिद्धात्मा किसी भी योनि और गति में नहीं भटकती अर्थात् जन्म मरण धारण नहीं करती और सिद्धात्माओं में किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं पाई जाती । संसारी आत्मा को ही कर्मजन्य जन्म, जरा, मरण, सुख, दुःख, शरीर, रोग, शोक, भय, इन्द्रियाँ, वेद, उच्च-नीच, सौभाग्य, दुर्भाग्य, मोह, निद्रा, अंतराय, अज्ञानादि सब स्थितियाँ भोगनी पड़ती हैं, जबकि सिद्धों को कर्मजन्य कुछ भी नहीं भोगना पड़ता । सभी संसारी आत्माओं में औपाधिक, वैभाविक पराए गुण या दोष पाए जाते हैं जबकि सिद्धात्माओं में कोई भी औपाधिक, वैभाविक गुण या दोष नहीं पाया प्रमादी को दुनिया का सारा धन भी नहीं बचा सकता.

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