Book Title: Chinta
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 14
________________ चिंत्ता १७ चिंत्ता भुन रहा है। मछलियाँ तेल में तलें ऐसी तड़फड़ाहट, तड़फड़ाहट हो रही है। इसे लाइफ (जीवन) कैसे कहेंगे? 'मैं करता हूं' इसलिए चिंता प्रश्नकर्ता : चिंता नहीं हो उसका भान होना, यह चिंता का दूसरा रूप नहीं? दादाश्री : नहीं। चिंता तो इगोइज़म है, केवल इगोइज़म। अपने स्वरूप से अलग होकर वह इगोइज़म करता है कि मैं ही चलानेवाला हूँ। संडास जाने की शक्ति नहीं है और 'मैं चलाता हूँ' ऐसा कहते हैं। चिंता वही अहंकार। इस बच्चे को चिंता क्यों नहीं होती? क्योंकि वह जानता है कि मैं नहीं चलाता। कौन चलाता है. उसकी उसे पडी ही नहीं है। _ 'मैं करता हूँ , मैं करता हूँ' ऐसा करते रहते हैं, इसलिए चिंता होती कई अवतार करने होंगे। क्योंकि चिंता से ही अवतार बँघते हैं। एक छोटी सी बात आपको बता देता हूँ। यह बारीकी की बात आपको बता देता हूँ, कि इस संसार में कोई मनुष्य ऐसा पैदा नहीं हुआ कि जिसे संडास जाने की स्वतंत्र शक्ति हो। तब फिर इन लोगों को इगोइज़म करने का क्या अर्थ हैं? यह दसरी शक्ति काम कर रही है। अब वह शक्ति हमारी नहीं है, वह पर-शक्ति है और स्व-शक्ति को जानता नहीं है, इसलिए खुद भी पर-शक्ति के आधीन है, और सिर्फ आधीन ही नहीं पर पराधीन भी है। सारा अवतार ही पराधीन है। बेटी ब्याहने की चिंता ऐसा है न कि हमारे यहाँ तो बेटी तीन साल की हो तब से ही सोचने लगते हैं कि यह बड़ी हो गई, यह बड़ी हो गई। ब्याहनी तो बीसवें साल में होती है मगर छोटी हो तब से चिंता करना शुरु कर देता है। बेटी ब्याहने की चिंता कब से शुरु करना, ऐसा किसी शास्त्र में लिखा है? और बीसवें साल ब्याहनी हो तो हमें चिंता कब से शुरु करनी चाहिए? दो-तीन साल की हो तब से? प्रश्नकर्ता : बेटी चौदह-पंद्रह साल की हो, तब तो माँ-बाप विचार करते हैं न! दादाश्री : नहीं, तब भी फिर पाँच साल तो रहे न ! उन पाँच सालों में चिंता करनेवाला मर जायेगा या जिसकी चिंता करता है, वह मर जायेगी, इसका क्या पता? पाँच साल बाकी रहे, उससे पहले चिंता कैसे कर सकते चिंता ही सबसे बड़ा अहंकार प्रश्नकर्ता : चिंता ही अहंकार की निशानी है, इसे ज़रा समझाइए। दादाश्री : चिंता अहंकार की निशानी क्यों कहलाती है? क्योंकि उसके मन में ऐसा लगता है कि 'मैं ही इसे चला रहा हूँ'। इससे उसे चिंता होती है। इसका चलानेवाला मैं ही हूँ', इसलिए वह फिर 'इस लड़की का क्या होगा? इन बच्चों का क्या होगा? यह कार्य पूरा नहीं हुआ तो क्या होगा?' ये चिंता अपने सिर लेता है। खुद अपने आपको कर्ता समझता है कि 'मैं ही मालिक हूँ और मैं ही करता हूँ।' पर वह खुद कर्ता है नहीं और व्यर्थ चिंताएँ मोल लेता है। फिर वह भी देखादेखी में कि फलाँ भाई को देखिये बेटी ब्याहने की कितनी चिंता करते हैं और मुझे तो चिंता नहीं। फिर चिंता ही चिंता में तरबूजे जैसा हो जाता है। और बेटी ब्याहने का समय आने पर हाथ में चार आने भी नहीं होते। चिंतावाला रुपये कहाँ से लायेगा? संसार में हों और चिंता में रहें और चिंता नहीं मिटे तो फिर उसे

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