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चिंता
प्रयत्न कीजिये पर चिंता मत कीजिये
कुदरत क्या कहती है कि कार्य नहीं होता हो तो प्रयत्न कीजिये, जबरदस्त प्रयल कीजिये मगर चिंता मत कीजिये। क्योंकि चिंता करने से उस कार्य को धक्का पहुँचेगा और चिंता करने वाला खुद लगाम अपने हाथों मे लेता है, मानो की 'मैं ही चलाता हूँ।' उसका गुनाह लागू होता है।
"यह जगत कौन चलाता (चलाने वाला) है", यह जानें तो हमें चिंता नहीं होगी।
-दादाश्री
LOANS
B00250030.
डॉ.नीरूबहन अमीन
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दादा भगवान प्ररूपित
(प्रकाशक : अजित सी. पटेल
महाविदेह फाउन्डेशन दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - ३८००१४ फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९ E-Mail: info@dadabhagwan.org
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All Rights reserved - Dr. Niruben Amin Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India.
चिंता
प्रथम संस्करण : प्रत ३०००,
जुलाई २००६
भाव मूल्य : 'परम विनय' और
'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव! द्रव्य मूल्य : २.५० रुपये
लेसर कम्पोझ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद.
मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन
अनुवाद : महात्मागण
मुद्रक
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिंटिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नई रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, २७५४०२१६
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त्रिमंत्र
दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें
हिन्दी १. ज्ञानी पुरूष की पहचान ७. भूगते उसी की भूल २. सर्व दुःखों से मुक्ति
८. एडजस्ट एवरीव्हेयर ३. कर्म का विज्ञान
९. टकराव टालिए ४. आत्मबोध
१०. हुआ सो न्याय ५. मैं कौन हूँ?
११. क्रोध ६. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी १२. चिंता
English 1. Adjust Everywhere
14. Ahimsa (Non-violence) 2. The Fault of the Sufferer 15. Money 3. Whatever has happened is Justice 16. Celibacy : Brahmcharya 4. Avoid Clashes
17. Harmony in Marriage 5. Anger
18. Pratikraman 6. Worries
19. Flawless Vision 7. The Essence of All Religion 20. Generation Gap 8. Shree Simandhar Swami 21. Apatvani-1 9. Pure Love
22. Noble Use of Money 10. Death: Before, During & After... 23. Life Without Conflict 11. Gnani Purush Shri A.M.Patel 24. Spirituality in Speech 12. Who Am I?
25. Trimantra 13. The Science of Karma
दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी बहुत सारी पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में दादावाणी मेगेजीन प्रकाशित होता है।
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आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लींक !
'दादा भगवान कौन? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन । प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रगट हुए।
और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्व दर्शन हुआ।'मैं कौन? भगवान कौन? जगत कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसकेमाध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष!
उन्हें प्राप्ति हई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य ममक्ष जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात बिना क्रम के, और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम अर्थात लिफ्ट मार्ग। शॉर्ट कट।
आपश्री स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हए कहते थे कि "यह दिखाई देनेवाले दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए. एम. पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं। सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और यहाँ' संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।"
'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया। बल्कि अपने व्यवसाय की अतिरिक्त कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?"
- दादाश्री परम पूजनीय दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थी। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् जारी रहेगा। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हजारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं।
ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शक के रुप में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान पाना जरूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति आज भी जारी है, इसके लिए प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी को मिलकर आत्मज्ञान की प्राप्ति करे तभी संभव है। प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है।
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निवेदन आत्मज्ञानी श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से आत्मतत्त्व के बारे में जो वाणी निकली, उसको रिकार्ड करके संकलन तथा संपादन करके ग्रंथो में प्रकाशित की गई है। मैं कौन हूँ ?' पुस्तक में आत्मा, आत्मज्ञान तथा जगतकर्ता के बारे में बुनियादी बातें संक्षिप्त में संकलित की गई हैं। सुज्ञ वाचक के अध्ययन करते ही आत्मसाक्षात्कार की भूमिका निश्चित बन जाती है, ऐसा अनेकों का अनुभव है।
'अंबालालभाई' को सब'दादाजी' कहते थे। दादाजी' याने पितामह और 'दादा भगवान' तो वे भीतरवाले परमात्मा को कहते थे। शरीर भगवान नहीं हो सकता है, वह तो विनाशी है। भगवान तो अविनाशी है और उसे वे 'दादा भगवान' कहते थे, जो जीवमात्र के भीतर है।
__ प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ख्याल रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो। उनकी हिन्दी के बारे में उनके ही शब्द में कहें तो "हमारी हिन्दी याने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी का मिश्चर है, लेकिन जब 'टी' (चाय) बनेगी, तब अच्छी बनेगी।"
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसी हमारी नम्र विनती है।
अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आप के क्षमाप्रार्थी हैं।
संपादकीय चिंता किसे नहीं होती होगी? जो संसार से सच्चे अर्थ में संपूर्ण विरक्त हुए हों, उन्हें ही चिन्ता नहीं होती। बाकी सब लोगो को चिंता होती है। चिंता क्यों होती है? चिंता का परिणाम क्या? और चिंता रहित कैसे हो सकते हैं, उसकी यथार्थ समज परम पूज्य दादाश्री ने बताई है, जो यहाँ प्रकाशित हुई है।
चिंता माने प्रकट अग्नि, निरंतर जलाती ही रहे। रात को सोने भी नहीं देती। भूख-प्यास हराम करे और कितने ही रोगों को दावत दे। इतना ही नहीं पर अगला जनम जानवर गति का बंधवाये। यह जनम और अगला जनम, दोनों ही बिगाड़े।
चिंता तो अहंकार है। किस आधार पर यह सब चल रहा है, यह नहीं समझने पर खुद अपने सिर लेकर, कर्ता बन बैठता है और भगतता है। भुगतना केवल अहंकार को है। कर्ता-भोक्तापन केवल अहंकार को ही है।
चिंता करने से कार्य बिगड़े, ऐसा कुदरत का कानून है। चिंता मुक्त होने पर वह कार्य स्वयं सुधर जाता है।
बड़े लोगों को बड़ी चिंता, एरकंडीशन में भी चिंता से सराबोर होते हैं। मजदूरों को चिंता नहीं होती, वे चैन से सोयें और इन सेठों को तो नींद की गोलियाँ लेनी पड़ती है। इन जानवरों को किसी दिन चिंता होती है?
बेटी दस साल की हो, तभी से उसे ब्याहने की चिंता शुरु हो जाती है। अरे, उसके लिए दूल्हा पैदा हो गया होगा कि पैदा होना बाकी होगा?
चिंता वाले के वहाँ लक्ष्मी नहीं टिकती। चिंता से अंतराय कर्म बंधता है।
चिंता किसे कहेंगे? विचार करने में हर्ज नहीं पर विचारों का चक्कर चले, तब से चिंता शुरु हो जाती है। विचारों के कारण घुटन होने पर वहाँ रुक जाना चाहिए।
वास्तव में 'कर्ता कौन है' यह नहीं समझने से चिंता होती है। कर्ता सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स है, विश्व में कोई स्वतंत्र कर्ता है ही नहीं, निमित्त मात्र है। चिंता सदा के लिए कैसे जाये? कर्तापद छूटे तब। कर्तापद कब छूटे? आत्मज्ञान प्राप्त करें तब।
- डॉ. नीरूबहन अमीन
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चिंता
चिंता आती है कहाँ से ?
दादाश्री : कभी चिंता की है क्या?
प्रश्नकर्ता: चिंता तो मानव स्वभाव है, इसलिए एक या दूसरे रुप में चिंता होती ही है।
दादाश्री : मनुष्य का स्वभाव कैसा है कि खुद को कोई थप्पड मारे, उसे सामने थप्पड मारे। पर यदि कोई समझदार हो तो वह सोचे कि मुझे कानून हाथ में नहीं लेना चाहिए । कुछ लोग कानून हाथ में भी ले लेते हैं। यह गुनाह कहलाये । चिंता कैसे कर सकता है मनुष्य ? प्रत्येक भगवान ऐसा कह गये हैं कि कोई भी चिंता मत करना। सारी ज़िम्मेवारी हमारे सिर पर रखना ।
प्रश्नकर्ता: पर कहना और व्यवहार में लाना, दोनों के बीच भारी अंतर है।
दादाश्री : नहीं, मैं व्यवहार में छोड़ने को नहीं कहता। यह तो विस्तार से बताता हूँ। ऐसे कुछ चिंता छूटती नहीं, पर यह चिंता नहीं करनी है। फिर भी हो जाती है सभी को ।
अब यह चिंता होने पर क्या दवाई लगाते हो? चिंता की दवाई नहीं आती?
जहाँ चिंता, वहाँ अनुभूति कहाँ से ? प्रश्नकर्ता : चिंता से परे होने के लिए भगवान से आशिर्वाद माँगो
चिंता
कि इसमें से मैं कब छूटूंगा, इसके लिए 'भगवान, भगवान' करो, इस माध्यम से हम आगे बढ़ना चाहते हैं। फिर भी मुझे अपने अंदरवाले भगवान की अनुभूति नहीं होती ।
२
दादाश्री : कैसे होगी अनुभूति ? चिंता में अनुभूति नहीं होती ! चिंता और अनुभूति दोनों साथ नहीं होते । चिंता बंद होने पर अनुभूति होगी । प्रश्नकर्ता: चिंता किस तरह मिटे ?
दादाश्री : यहाँ सत्संग में रहने पर सत्संग में आये हो कभी? प्रश्नकर्ता: और जगह सत्संग में जाता हूँ ।
दादाश्री : सत्संग में जाने पर यदि चिंता बंद नहीं होती हो तो वह सत्संग छोड़ देना चाहिए। बाकी, सत्संग में जाने पर चिंता बंद होनी ही चाहिए।
प्रश्नकर्ता: वहाँ बैठें, उतनी देर शांति रहती है।
दादाश्री : नहीं, उसे शांति नहीं कहते। उसमें शांति नहीं है। ऐसी शांति तो गप्पें सुने तो भी होगी। सच्ची शांति तो कायम रहनी चाहिए, हिलनी ही नहीं चाहिए। अर्थात चिंता हो उस सत्संग में जाना ही किस लिए? सत्संगवालों से कह देना कि, 'भैया, हमें चिंता होती है, इसलिए अब हम यहाँ आनेवाले नहीं है, वर्ना आप कुछ ऐसी दवाई करें कि चिंता नहीं हो।'
प्रश्नकर्ता: ऑफिस जाऊँ, घर जाऊँ, तो भी कहीं मन नहीं लगता। दादाश्री : ऑफिस तो हम नौकरी के लिए जाते हैं और तनख्वाह तो चाहिए न ? घर-गृहस्थी चलानी है, इसलिए घर नहीं छोड़ना, नौकरी भी नहीं छोड़नी । पर केवल जहाँ पर चिंता नहीं मिटती वह सत्संग छोड़ देना है। नया दूसरा सत्संग खोजना, तीसरे सत्संग में जाना । सत्संग कई
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चिंता
चिंत्ता
तरह के होते हैं, पर सत्संग से चिंता जानी चाहिए। आप दूसरे किसी सत्संग में नहीं गये?
प्रश्नकर्ता : पर हमें ऐसा बताया गया है कि भगवान आपके अंदर ही हैं। शांति आपको अंदर से ही मिलेगी. बाहर भटकना बंद कर दो।
दादाश्री : हाँ, ठीक है।
प्रश्नकर्ता : पर अंदर जो भगवान बैठे हैं, उसका ज़रा भी अनुभव नहीं होता।
दादाश्री : चिंता में अनुभव नहीं होता। चिंता होने पर अनुभव हुआ हो वह भी चला जायेगा। चिंता तो एक प्रकार का अहंकार कहलाता है। भगवान कहते हैं कि, 'तू अहंकार करता है, तो चला जा हमारे पास से।' जिसे 'यह मैं चलाता हूँ' ऐसा चलाने का अहंकार हो, वही चिंता करता है न! भगवान के ऊपर जरा भी विश्वास नहीं हो, वही चिंता करता है।
प्रश्नकर्ता : भगवान पर विश्वास तो है।
दादाश्री : विश्वास हो तो ऐसा करे ही नहीं। भगवान भरोसे छोड़कर, चैन से सो जाये। फिर चिंता भला कौन करे? इसलिए भगवान पर भरोसा रखिये। भगवान आपका थोड़ा बहुत संभालता होगा कि नहीं? खाना खाकर फिर चिंता करते हो? पाचक रस पड़े कि नहीं, पित्त पड़ा, ऐसी सारी चिंताएँ नहीं करते? इसका खून बनेगा कि नहीं, इसकी संडास होगी कि नहीं, ऐसी चिंता करते हो? अर्थात यह अंदर का बहुत कुछ चलाने का है, बाहर तो क्या चलाना है, जो चिंता करते हो? फिर भगवान को बुरा ही लगेगा न! अहंकार करोगे तो चिंता होगी। चिंता करनेवाला मनुष्य अहंकारी कहलाता है। एक सप्ताह भगवान को सोंपकर चिंता करना छोड़ दो। फिर यहाँ किसी दिन भगवान का साक्षात्कार करा देगें, जिससे हमेशा के लिए चिंता मिट जायेगी।
चिंता यानी प्रकट अग्नि इसलिए यह सब समझना होगा। यूँ ही चुपड़ने की दवाई पी जायें तो क्या होगा फिर? ये सभी चुपड़ने की दवाई पी गये हैं, वर्ना मनुष्य को चिंता तो होती होगी? हिन्दुस्तान के मनुष्य को चिंता होती होगी कहीं? आप को चिंता का शौक है?
प्रश्नकर्ता : नहीं, शांति चाहते हैं।
दादाश्री : चिंता तो अग्नि कहलाती है। ऐसा होगा और वैसा होगा। किसी काल में जब कभी संस्कारी मनुष्य होने का सद्भाग्य प्राप्त हो और चिंता में रहा करे, तो मनुष्यपन भी चला जाये। कितना भारी जोखम कहलाये? अगर आपको शांति चाहिए तो मैं आपकी चिंता हमेशा के लिए बंद कर दूँ।
चिंता बंद हो, तभी से वीतराग भगवान का मोक्ष मार्ग कहलाता है। वीतराग भगवान के जब दर्शन करें न, तब से ही चिंता बंद होनी चाहिए। पर दर्शन करना भी नहीं आता। दर्शन करना तो ज्ञानी पुरुष सिखलायें कि ऐसे दर्शन करना, तब काम होगा। इस चिंता में तो आग सुलगती रहती है। शकरकंद देखे हैं? शकरकंद भठ्ठी में रखें और भूनें, उस जैसी स्थिति होती है।
ज्ञानी कृपा से चिंता मुक्ति प्रश्नकर्ता : तो चिंता से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : आपकी तरह ये भाई भी बहुत जगह गये, मगर फायदा नहीं हुआ। तब उन्हों ने क्या किया, यह उनसे पूछिए। उन्हें एक भी चिंता है? अभी गालियाँ दें तो अशांति होगी क्या, उनसे पूछो।
प्रश्नकर्ता : पर चिंता बंद करने के लिये मुझे क्या करना चाहिए?
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चिंत्ता
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चिंत्ता
से, प्रतिकार का अहंकार छोटा है। भगवान ने कहा है कि, 'ऐसी परिस्थिति में सामना करना, उपाय करना, पर चिंता मत करना।'
चिंता करनेवाले को दोहरा दंड भगवान कहते हैं कि चिंता करनेवालों को दो दंड है और चिंता नहीं करनेवालों को एक ही दंड है। अट्ठारह साल का एकलौता लड़का मर जाये, उसके पीछे जितनी चिंता करते हैं, जितना दु:खी होते हैं, सिर फोड़ते है, ओर जो कुछ भी करते हैं, उनको दो दंड हैं। और यह सब नहीं करें तो एक ही दंड है। लड़का मर गया उतना ही दंड है और सिर फोड़ा वह विशेष दंड है। हम उस दोहरे दंड में कभी भी नहीं आते। इसलिए हम ने इन लोगों से कहा है कि पाँच हजार की जेब कट जाये तब 'व्यवस्थित' (अर्थात सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स) है, कहकर आगे चलना और आराम से घर जाना।
दादाश्री : वह तो 'ज्ञानी पुरुष' के पास आकर कृपा ले जाना। फिर चिंता बंद हो जायेगी और संसार चलता रहेगा।
चिंता जाये तब से समाधि चिंता नहीं हो तो सच में उलझन गई। चिंता नहीं हो, वरीज़ नहीं हो और उपाधि में समाधि रहे तो समझना कि सच में उलझन गई।
प्रश्नकर्ता : ऐसी समाधि लानी हो तो भी नहीं आती।
दादाश्री : वह तो लाने से नहीं आती। ज्ञानी पुरुष उलझन सुलझा दें, सब शुद्ध कर दें, तब निरंतर समाधि रहती है।
यदि चिंता नहीं हो ऐसी लाइफ हो, तो अच्छी कहलायेगी न? प्रश्नकर्ता : वह तो अच्छी ही कहलायेगी न!
दादाश्री : हम बगैर चिंता की लाइफ बना देंगे। फिर आपको चिंता नहीं रहेगी। इस काल का यह एक महान आश्चर्य है। इस काल में ऐसा नहीं होता, मगर देखिए यह हुआ है न!
'खुद' परमात्मा, फिर चिंता क्यों ? सिर्फ बात ही समझनी है। आप भी परमात्मा हैं, भगवान ही हैं, फिर किस लिए वरीज़ (चिंता) करनी? चिंता किस लिए करते हैं? एक क्षण भर के लिए भी चिंता करने जैसा यह संसार नहीं है। चिंता से अब वह सेफ साइड नहीं रह सकती, क्योंकि जो सेफ साइड नेचुरल थी, उसमें आपने उलझन पैदा की। फिर अब चिंता क्यों करते हो? उलझन आने पर उसका सामना करो और सुलझा दो।
प्रश्नकर्ता : यदि हम प्रतिकूलता का सामना करें, उसका अवरोध करें, प्रतिकार करें, तो उससे अहंकार बढ़ेगा?
दादाश्री : चिंता करने से सामना करना अच्छा है। चिंता के अहंकार
यह एक दंड हमारा खुद का हिसाब ही है, इसलिए घबराने का कोई कारण नहीं है। इसलिए हो गया है, उसे तो 'हुआ सो करेक्ट' ऐसा कहो।
जिसकी चिंता वह कार्य बिगड़े कुदरत क्या कहती है कि कार्य नहीं होता हो तो प्रयत्न कीजिये, जबरदस्त प्रयत्न कीजिये मगर चिंता मत कीजिये। क्योंकि चिंता करने से उस कार्य को धक्का पहुँचता है और चिंता करनेवाला खुद लगाम अपने हाथों में लेता है। 'मैं ही मानो चलाता हूँ।' ऐसे लगाम अपने हाथों में लेता हैं। उसका गुनाह लागू होता है।
परसत्ता प्रयोग से चिंता होती है। विदेश की कमाई विदेश में ही रहेगी। ये मोटर-बँगले, मिलें, बीवी-बच्चे सभी यहाँ छोड़कर जाना पड़ेगा। उस आखरी स्टेशन पर तो किसी के बाप का चलनेवाला नहीं हैं। सिर्फ
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चिंता
चिंत्ता
पुण्य और पाप साथ ले जाने देंगे। दूसरी सादी भाषा में कहूँ तो यहाँ जो जो गुनाह किये उसकी धाराएँ साथ आयेंगी। गुनाह की कमाई यहीं रहेगी और फिर मुकदमा चलेगा। तब धाराओं के अनुसार नया शरीर प्राप्त करके, नये सिरे से कमाई करके कर्ज चुकता करना पड़ेगा। इसलिए मुए, पहले से ही सीधा हो जा न! स्वदेश (आत्मा) में तो बहुत ही सुख है, पर स्वदेश देखा ही नहीं है न!
__उगाही याद आये वहाँ... रात को सभी कहें कि, 'ग्यारह बज गये हैं, आप अब सो जाओ।' जाड़े का दिन है और आप मच्छरदानी में घुस गये। घर के सब लोग सो गये है। मच्छरदानी में, घुसने के बाद आपको याद आया कि, 'एक आदमी का तीन हजार का बिल बाकी है और मुद्दत हो गई है। आज दस्तखत करवाये होते तो मुद्दत मिल जाती। रातों-रात कहीं दस्तखत होते होंगे? होगें नहीं न? तो चैन से सो जाओ, तो हमारा क्या बिगडेगा?
चिंता का मूल कारण जी जलता रहे, ऐसी चिंता तो काम की नहीं। जो शरीर को नुकसान करे और हमारे पास जो आनेवाली वस्तु थी उसमें विघ्न डाले। चिंता से ही ऐसे संयोग पैदा हो जाते हैं। सार-असार के अथवा ऐसे विचार करने चाहिए, मगर चिंता किस लिए? इसे इगोइज़म (अहंकार) कहा है। वह इगोइजम नहीं होना चाहिए। मैं कुछ हूँ और मैं ही चलाता हूँ', इससे उसे चिंता होती है और 'मैं होऊँगा तभी इस केस का समाधान होगा', उसीसे चिंता होती रहती हैं। इसलिये इगोइज़म वाले भाग का ओपरेशन कर देना, फिर जो सारासार के विचार रहें, उसमें हर्ज नहीं है। वह फिर भीतर खून नहीं जलाते। वर्ना चिंता तो खून जलाती है, मन जलाती है। चिंता होती हो, उस समय बच्चा कुछ कहने आया हो, तो उसके ऊपर भी उग्र हो जाते हैं अर्थात हर तरह से नुकसान करती है। यह अहंकार
ऐसी चीज़ है कि पैसे हों या नहीं हों, पर कोई कहेगा कि, 'इस चन्दुभाई ने मेरा सब बिगाड़ा', तब अपार चिंता और अपार उपाधि हो जाती है। और संसार तो हमने नहीं बिगाड़ा हो तो भी कहेगा न!
चिंता के परिणाम क्या? इस संसार में बाय प्रोडक्ट का अहंकार होता ही है और वह सहज अहंकार है। जिससे संसार सहजता से चले ऐसा है। वहाँ अहंकार का कारखाना खड़ा किया और अहंकार का विस्तार किया और इतना विस्तार किया कि जिससे चिंता बेहद हो गई। अहंकार का ही विस्तार किया। सहज
अहंकार से, नोर्मल अहंकार से संसार चले ऐसा है। पर वहाँ अहंकार का विस्तार करके फिर चाचा इतनी उम्र में कहते है कि, 'मुझे चिंता होती है।' उस चिंता का परिणाम क्या? आगे जानवर गति होगी। इसलिए सावधान हो जाओ। अभी सावधान होने जैसा है। मनुष्य में हो तब तक सावधान हो जाओ, वर्ना चिंता हो वहाँ तो फिर जानवर का फल आयेगा।
भक्त तो भगवान को भी धमकाये भगवान के सच्चे भक्त को यदि चिंता हो तो वह भगवान को भी धमकाये। 'हे भगवान! आप मना करते हैं तो फिर मुझे चिंता क्यों होती है?' जो भगवान से लड़ता नहीं वह सच्चा भक्त नहीं। यदि कोई उपाधि आये, तो आपके भीतर भगवान बैठा है, उसे डाँटना-धमकाना। भगवान को भी धमकाये, वह सच्चा प्रेम कहलाता है। आज तो भगवान का सच्चा भक्त मिलना भी मुश्किल है। सब अपनी-अपनी तरह से रहते हैं।
श्री कृष्ण भगवान कहते है, 'जीव तू काहे सोच करे, कृष्ण को करना हो सो करे।'
तब ये लोग क्या कहते हैं? कृष्ण भगवान तो कहते हैं, पर यह संसार चिंता किये बगैर थोड़े ही चलेगा? इसलिए लोगों ने चिंता के
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चिंत्ता
चिंत्ता
कारखाने खोले हैं। वह माल भी नहीं बिकता। कहाँ से बिके? जहाँ बेचने गये, वहाँ भी कारखाना तो होगा ही। इस संसार में एक भी मनुष्य ऐसा ढूँढ लाओ कि जिसे चिंता नहीं होती हो।
एक ओर कहते हैं कि 'श्री कृष्ण शरणं मम्' और यदि श्री कृष्ण की शरण ली है तो फिर चिंता काहे की? महावीर भगवान ने भी चिंता करने को मना किया है। उन्हों ने तो एक चिंता का फल तिर्यंच गति कहा है। चिंता तो सबसे बड़ा अहंकार है। मैं ही यह सब चलाता हूँ' ऐसा जबरदस्त रहा करता है न, उसके फल स्वरुप चिंता पैदा होती है।
मिला एक ही काँटा हर ओर से। चिंता तो आर्तघ्यान है। यह शरीर जितना शाता-अशाता का उदय लेकर आया है, उतना भुगतने पर ही छुटकारा है। इसलिए किसी का दोष मत देखना, किसी के दोष के प्रति दृष्टि मत करना और निज दोष से ही बंधन है ऐसा समझ जाओ। तुझ से कुछ बदलाव होनेवाला नहीं है।
इस पर श्रीकृष्ण भगवान ने कहा कि, 'जीव तू काहे सोच करे, कृष्ण को करना हो सो करे।' तब जैन क्या कहते हैं कि, 'यह तो कृष्ण भगवान ने कहा है, महावीर भगवान ने ऐसा नहीं कहा।' महावीर भगवान ने इस पर क्या कहा कि 'राईमात्र घट-बढ़ नहीं, देखा केवल ज्ञान, यह निश्चय कर जानिये, तजिये आर्तध्यान।' चिंता-आर्तध्यान छोड़ दो। पर भगवान का कहा माना हो तब न? नहीं मानना हो, उसे हम क्या कहें? मुझे ऐसा कहा था, तब मैं तो मान गया था। मैं ने कहा, हाँ भाई, मगर यह एक ही ऐसी बात है, इसलिए मैं ने दूसरी ओर तलाश की। जो महावीर भगवान ने कहा, वही कृष्ण भगवान ने कहा, तब मैं ने कहा, यह काँटा मिलता है फिर भी शायद कोई भूल होती हो, तो आगे तलाश करें।
तब सहजानंद स्वामी कहते है, 'मेरी मरजी बिना रे, कोई तिनका तोड़ न पाये।' ओहो! आप भी पक्के हैं! यह 'आपके बगैर एक तिनका
भी नहीं टूटता?' तब कहा, 'चलिए तीन काँटे मिले।' तब मैं ने कहा, और काँटा मिलाइए।
अब कबीर साहब क्या कहते हैं, 'प्रारब्ध पहले बना, पीछे बना शरीर, कबीर अचंभा ये है, मन नहीं बाँधे धीर।' मन को धीरज नहीं यही बड़ा आश्चर्य है। ये सभी काँटा मिलाता रहा, सबसे पूछता रहा। आपका काँटा क्या? बोलिए, कह दीजिए।
हाँ, एक व्यक्ति की भूल हो सकती है, मगर वीतरागों का गलत तो कह ही नहीं सकते। लिखनेवाले की भूल हो गई हो तो ऐसा हो सकता है। वीतराग की भूल तो मैं कभी मानूँगा ही नहीं। मुझे कैसा भी घुमाफिराकर समझाया पर मैंने वीतराग की भूल मानी ही नहीं है। बचपन से, जन्म से, वैष्णव होने पर भी मैंने उनकी भूल नहीं मानी। क्योंकि इतने सयाने पुरुष! जिनका नाम स्तवन करने से कल्याण हो जाये!! और देखो, हमारी दशा देखो! राई मात्र घट-बढ़ नहीं। देखा है आपने राई का दाना? तब कहें, लीजिए, नहीं देखा होगा राई का दाना? एक राई के दाने के बराबर फर्क होनेवाला नहीं है और देखिए, लोग कमर कस कर, जहाँ तक जाग सके जागते रहते हैं। शरीर को खींच-खींचकर जागते हैं और फिर तो हार्ट फेल की तैयारी करते है।
इन्हें क़ीमत किसकी? एक बूढ़े चाचा आये और मेरे पैरों में पड़कर बहुत रोये। मैं ने पूछा, 'क्या दुःख है आपको?' तो बताया, 'मेरे गहने चोरी हो गये, मिलते ही नहीं हैं। अब वापस कब मिलेंगे?' तब मैं ने उनसे कहा, 'वे गहने क्या साथ ले जानेवाले थे?' तब कहें, 'नहीं, साथ नहीं ले जा सकते। पर मेरे गहने जो चोरी हो गये हैं, वे वापस कब मिलेंगे?' मैं ने कहा, 'आपके जाने के बाद आयेंगे।' गहने गये उसके लिए इतनी हाय, हाय, हाय! अरे, जो गया उसकी चिंता करनी ही नहीं चाहिए। शायद आगे की चिंता, भविष्य
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की चिंता करें, वह हम समझते है कि बुद्धिमान मनुष्य को चिंता तो होती ही है, पर गया उसकी भी चिंता? हमारे देश में ऐसी चिंता होती है। क्षणभर पहले हो गया, उसकी चिंता क्या ? जिसका उपाय नहीं, उसकी चिंता क्या? कोई भी बुद्धिमान समझेगा कि अब कोई उपाय नहीं रहा, इसलिए उसकी चिंता छोड़ देनी चाहिए।
वे चाचा रो रहे थे मगर मैं ने उन्हें दो मिनट में ही पलट दिया । फिर तो 'दादा भगवान के असीम जय जयकार हो' बोलने लगे। तब आज सवेरे भी वहाँ रणछोड़जी केमंदिर में मिले, तब बोल उठे, 'दादा भगवान?' मैं ने कहा, 'हाँ, वही।' फिर कहे, 'सारी रात मैं तो आपका ही नाम लेता रहा।' इनको तो इधर घुमायें तो इधर, इनको ऐसा कुछ भी नहीं है।
प्रश्नकर्ता : आपने उन्हें क्या कहा?
दादाश्री : मैं ने कहा, 'वे गहने वापस आये ऐसा नहीं है, हाँ, पर दूसरी तरह से गहने आयेंगे।'
प्रश्नकर्ता : आप मिल गये अर्थात बड़ा गहना ही मिल गया न!
दादाश्री : हाँ, यह तो अजूबा है। पर यह उसे किस तरह समझ आये? उसे तो उन गहनों के सामने इसकी क़ीमत ही नहीं होगी न। अरे, उसे चाय पीनी हो और हम कहें कि, 'मैं हूँ न, तुझे चाय का क्या काम है?' तब वह कहेगा, 'मुझे बिना चाय चैन नहीं आता, आप हो या नहीं हो।' इनको क़ीमत किसकी? जिसकी इच्छा है उसकी।
कुदरत के गेस्ट की साहेबी तो देखिए ! ___ इस वर्ल्ड (संसार) में कोई भी चीज़ जो बेश-क़ीमती होती है, वह फ्री ऑफ कोस्ट (मुफ्त) ही होती है। उसके ऊपर सरकारी कर कुछ भी नहीं रख सकते। कौन सी चीज़ क़ीमती है?
प्रश्नकर्ता : हवा, पानी।
दादाश्री : हवा ही, पानी नहीं। हवा पर सरकारी कर बिलकुल नहीं है, कुछ नहीं। जहाँ देखो वहाँ, आप जहाँ जायें, एनी व्हेर, एनी प्लेस, (कहीं भी, किसी भी जगह) वहाँ आपको वह प्राप्त होगी। कुदरत ने कितना रक्षण किया है आपका। आप कुदरत के गेस्ट (महेमान) हैं और गेस्ट होकर आप शोर मचाते हैं, चिंता करते हैं। इसलिए कुदरत के मन में ऐसा लगता है कि अरे, मेरे गेस्ट हुए पर इस आदमी को गेस्ट होना भी नहीं आता। तब फिर रसोईघर में जाकर कहेंगे, 'कढ़ी में नमक ज़रा ज्यादा डालना।' अबे मुए, गेस्ट होकर रसोईघर में घुसता है। वे जैसा परोसे वैसा खा लें। गेस्ट होकर रसोईघर में कैसे जा सकते हैं? अर्थात यह बेश-क़ीमती हवा फ्री ऑफ कोस्ट। उससे दूसरे नंबर पर क्या आता है? पानी आता है। पानी थोड़े-बहुत पैसे से मिलता है। और फिर तीसरा आया अनाज, वह भी थोड़े-बहुत पैसे में।
प्रश्नकर्ता : प्रकाश।
दादाश्री : लाईट तो होगा ही। लाईट तो, सूर्यनारायण मानो आपकी सेवा में ही बैठे हो, ऐसे साढ़े छह बजे आकर खड़े हो जाते हैं।
कहीं भी भरोसा ही नहीं यह तो हमारे हिन्दुस्तान के लोग तो इतने चिंतावाले हैं कि यह सूर्यनारायण यदि एक ही दिन की छुट्टी लें और कहें कि, अब फिर कभी छुट्टी पर नहीं जाऊँगा। तो भी दूसरे दिन इन लोगों को शंका होगी कि कल सूर्यनारायण आयेंगे या नहीं आयेंगे? सबह होगी या नहीं होगी? अर्थात नेचर (कुदरत) का भी भरोसा नहीं है। खुद अपने पर भी भरोसा नहीं है, भगवान का भी भरोसा नहीं है। किसी चीज पर भरोसा नहीं है। खुद की वाईफ पर भी भरोसा नहीं है।
खुद ही निमंत्रित की हुई चिंता। चिंता करे वह भी पड़ौसी का देखकर, पड़ौसी के घर गाड़ी है
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और हमारे घर नहीं। अबे, जीवन यापन के लिए कितना चाहिए? तू एक बार तय कर ले कि इतनी मेरी जरुरतें हैं। जैसे घर में खाने-पीने को पर्याप्त चाहिए, रहने को घर चाहिए, घर चलाने के लिए पर्याप्त लक्ष्मी चाहिए। तो इतना तुझे अवश्य प्राप्त होगा ही। पर यदि पड़ौसी के दस हजार बैंक में पड़े हों, तो तुझे मन में खटकता रहे। ऐसे तो दुःख पैदा होते हैं। दुःख को खुद ही बुलाता है।
जीने का आधार, अहंकार । जब पैसे बहुत आने लगे न, तो व्याकुल होगा, चिंतित होगा। यह अहमदाबाद के मिलवाले सेठों की तफ़सील कहूँ तो आपको लगेगा कि हे भगवान, यह दशा एक दिन के लिए भी मत देना। सारा दिन शकरकंद भट्ठी में रखा हो, उस तरह भुनाते रहते हैं। किस आधार पर जी रहे हैं? मैं ने एक सेठजी से पूछा, 'किस आधार पर आप जीते हैं?।' तब कहें, 'यह तो मैं भी नहीं जानता।' तब मैं ने कहा, 'बता दूँ? सबसे बड़ा तो मैं ही हूँ न, बस इस आधार पर जीते हैं। बाकी कुछ भी सुख नहीं मिलता।
___ न करो अप्राप्त की चिंता अहमदाबाद के कुछ सेठ मिले थे। मेरे साथ भोजन लेने बैठे थे। तब सेठानी सामने आकर बैठीं। मैं ने पूछा, 'सेठानीजी, आप क्यों सामने
आकर बैठी?' तो बोली, 'सेठजी ठीक से भोजन नहीं करते हैं , एक दिन भी।' भोजन करते समय मिल में गये होते हैं, इससे मैं समझ गया। जब मैं ने सेठजी को टोका तो बोले, 'मेरा चित्त सारा वहाँ (मिल में) चला जाता है।' मैं ने कहा, 'ऐसा मत करना। वर्तमान में थाली आई उसे पहले, अर्थात प्राप्त को भुगतो, अप्राप्त की चिंता मत करो। जो प्राप्त वर्तमान है उसे भुगतो।
चिंता होती हो तो फिर भोजन लेने रसोईघर में जाना पड़े? फिर बेडरुम में सोने जाना पड़े? और ऑफिस में काम पर...
प्रश्नकर्ता : वो भी जाते हैं।
दादाश्री : वे सारे डिपार्टमेन्ट है। तो इस एक ही डिपार्टमेन्ट की उपाधि हो, उसे दूसरे डिपार्टमेन्ट में मत ले जाना। एक डिवीजन में जायें तो वहाँ जो हो वह सब काम पूर्णतया कर लेना। पर दूसरे डिविजन में भोजन करने गये, तो पहले डिविजन की उपाधि वहीं छोडकर, वहाँ भोजन लेने बैठे तो स्वाद से भोजन करना। बेडरुम में जाने पर भी पहलेवाली उपाधि वहीं की वहीं रखना। ऐसा आयोजन नहीं होगा, वह मनुष्य मारा जायेगा। खाने बैठा हो तब चिंता करे कि ऑफिस में साहब डाँटेंगे तब क्या करेंगे? अरे, डाँटेंगे तब देख लेंगे, अभी चैन से भोजन ले न!
भगवान ने क्या कहा था कि, 'प्राप्त को भुगतो, अप्राप्त की चिंता मत करो।' अर्थात क्या कि, 'जो प्राप्त है उसे भुगतो!'
एयरकंडिशन में भी चिंता प्रश्नकर्ता : और भी चिंताएँ होगी न दिमाग़ में।
दादाश्री : खाना खाते हो तो भी साथ में चिंता होती है। अर्थात वो घंटा सिर के ऊपर लटकता ही होगा तब, 'अब गिरा, अब गिरा, अब गिरा!!' अब बोलिए! ऐसे भय के संग्रहस्थान के नीचे यह सभी भोगना है। अर्थात यह सब किस हद तक पुसायेगा? फिर भी लोग निर्लज्ज होकर भोगते भी हैं। जो होना होगा, वह होगा, मगर भुगतो। इस संसार में भोगने योग्य है कुछ?
विदेश में ऐसा-वैसा नहीं होता। किसी देश में ऐसा नहीं होता। यह सब तो यहीं पर है। बुद्धि का भंडार, थोक बुद्धि, चिंता भी थोक, कारखाने निकाले है सभी। ये बड़े बड़े कारखाने, जबरदस्त पंखे फिरे उपर से, सब फिरे। चिंता भी करते हैं और उपाय भी करते हैं। फिर वह ठंडा करता हैं, क्या कहते हैं उसे?
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प्रश्नकर्ता : एयरकंडीशन। दादाश्री : हाँ, एयरकंडीशन। हिन्दुस्तान में अजूबा ही है न! प्रश्नकर्ता : अभी चिंताएँ सभी एयरकंडीशन में ही होती हैं।
दादाश्री : हाँ, अर्थात वे साथ में ही होते हैं। चिंताओं के साथ एयरकंडीशन। हमें एयरकंडीशन की जरुरत नहीं पड़ती।
ये अमेरिकनों की लड़कियाँ सब चली जाती हैं। उसकी चिंता उन्हें नहीं होती और हमारे लोगों को? क्योंकि हर एक की मान्यता अलग है।
आयुष्य का एक्सटेन्शन मिला ? आप इस दुनिया में अभी दौ सौ एक साल तो रहोगे न? एक्सटेन्शन नहीं लिया क्या?
प्रश्नकर्ता : एक्सटेन्शन मिले किस तरह? हमारे हाथ में तो कुछ नहीं है, मुझे तो नहीं लगता।
दादाश्री : क्या बात करते हो? यदि जीना हाथ में होता तो मरते नहीं। यदि आयुष्य का एक्सटेन्शन नहीं मिलता हो तो किस लिए चिंता करते हो? जो मिला है, उसे ही आराम से भुगतो न।
चिंता मोल लेना, मनुष्य स्वभाव चिंता से तो काम बिगडता है। यह चिंता से काम शत प्रतिशत के बजाय सत्तर प्रतिशत हो जाता है। चिंता काम को ऑब्स्ट्रक्ट (दखल) करती है। यदि चिंता नहीं हो तो बहुत सुंदर परिणाम आये।
जैसे 'हम मरनेवाले हैं', ऐसा सभी को मालूम है। मृत्यु याद आने पर लोग क्या करते हैं? उसे धक्का देते हैं। हमें कुछ हो जायेगा तो, ऐसा याद आते ही धक्का देते हैं। उसी प्रकार जब अंदर चिंता होने लगे, तब धक्का लगा देना कि यहाँ नहीं भाई!
हमेशा चिंता से सब बिगड़ता है। चिंता से मोटर चलायेंगे तो टकरा जाये। चिंता से व्यापार करें, वहाँ कार्य विपरित हो जाये। चिंता से संसार में यह सब बिगड़ा है।
चिंता करने जैसा संसार है ही नहीं। इस संसार में चिंता करना वह बेस्ट फूलिशनेस (सर्वोत्तम मूर्खता) है। संसार चिंता करने के लिए है ही नहीं। यह इटसेल्फ क्रियेशन (स्वयं निर्मित) है। भगवान ने यह क्रियेशन (निर्माण) नहीं किया है। इसलिए चिंता करने के लिए यह क्रियेशन नहीं है। ये मनुष्य अकेले ही चिंता करते हैं, अन्य कोई जीव चिंता नहीं करते। अन्य चौरासी लाख योनियाँ हैं, पर कोई चिंता नहीं करता। ये मनुष्य नामक जीव जो लाल-बुझक्कड़ हैं, वे सारा दिन चिंता में जलते रहते हैं।
चिंता तो प्योर इगोइज़म (निरा अहंकार) हैं। ये जानवर कोई चिंता नहीं करते और इन मनुष्यों को चिंता? ओ हो हो ! अनंत जानवर हैं, किसी को चिंता नहीं और मनुष्य अकेले ही जड़ जैसे है कि सारा दिन चिंता में जला करते हैं।
प्रश्नकर्ता : जानवर से भी गये-गुजरे हैं न वे?
दादाश्री : जानवर तो कई गुने अच्छे हैं। जानवर को भगवान ने आश्रित कहा हैं। इस संसार मे यदि कोई निराश्रित है, तो वे अकेले मनुष्य ही हैं और उनमें भी हिन्दुस्तान के मनुष्य ही शत प्रतिशत निराश्रित है, फिर इन्हें दु:ख ही होगा न! कि जिन्हें किसी प्रकार का आसरा ही नहीं है।
मज़दूर चिंता नहीं करते और सेठ लोग चिंता करते हैं। मज़दूर एक भी चिंता नहीं करते, क्योंकि मज़दूर उच्च गति में जानेवाले हैं और सेठ लोग नीची गति में जानेवाले हैं। चिंता से नीची गति होती है, इसलिए चिंता नहीं होनी चाहिए।
निपट वरिज़, वरिज, वरिज़। शकरकंद भट्ठी में भुनते हैं ऐसे संसार
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भुन रहा है। मछलियाँ तेल में तलें ऐसी तड़फड़ाहट, तड़फड़ाहट हो रही है। इसे लाइफ (जीवन) कैसे कहेंगे?
'मैं करता हूं' इसलिए चिंता प्रश्नकर्ता : चिंता नहीं हो उसका भान होना, यह चिंता का दूसरा रूप नहीं?
दादाश्री : नहीं। चिंता तो इगोइज़म है, केवल इगोइज़म। अपने स्वरूप से अलग होकर वह इगोइज़म करता है कि मैं ही चलानेवाला हूँ। संडास जाने की शक्ति नहीं है और 'मैं चलाता हूँ' ऐसा कहते हैं।
चिंता वही अहंकार। इस बच्चे को चिंता क्यों नहीं होती? क्योंकि वह जानता है कि मैं नहीं चलाता। कौन चलाता है. उसकी उसे पडी ही नहीं है। _ 'मैं करता हूँ , मैं करता हूँ' ऐसा करते रहते हैं, इसलिए चिंता होती
कई अवतार करने होंगे। क्योंकि चिंता से ही अवतार बँघते हैं।
एक छोटी सी बात आपको बता देता हूँ। यह बारीकी की बात आपको बता देता हूँ, कि इस संसार में कोई मनुष्य ऐसा पैदा नहीं हुआ कि जिसे संडास जाने की स्वतंत्र शक्ति हो। तब फिर इन लोगों को इगोइज़म करने का क्या अर्थ हैं? यह दसरी शक्ति काम कर रही है। अब वह शक्ति हमारी नहीं है, वह पर-शक्ति है और स्व-शक्ति को जानता नहीं है, इसलिए खुद भी पर-शक्ति के आधीन है, और सिर्फ आधीन ही नहीं पर पराधीन भी है। सारा अवतार ही पराधीन है।
बेटी ब्याहने की चिंता ऐसा है न कि हमारे यहाँ तो बेटी तीन साल की हो तब से ही सोचने लगते हैं कि यह बड़ी हो गई, यह बड़ी हो गई। ब्याहनी तो बीसवें साल में होती है मगर छोटी हो तब से चिंता करना शुरु कर देता है। बेटी ब्याहने की चिंता कब से शुरु करना, ऐसा किसी शास्त्र में लिखा है? और बीसवें साल ब्याहनी हो तो हमें चिंता कब से शुरु करनी चाहिए? दो-तीन साल की हो तब से?
प्रश्नकर्ता : बेटी चौदह-पंद्रह साल की हो, तब तो माँ-बाप विचार करते हैं न!
दादाश्री : नहीं, तब भी फिर पाँच साल तो रहे न ! उन पाँच सालों में चिंता करनेवाला मर जायेगा या जिसकी चिंता करता है, वह मर जायेगी, इसका क्या पता? पाँच साल बाकी रहे, उससे पहले चिंता कैसे कर सकते
चिंता ही सबसे बड़ा अहंकार प्रश्नकर्ता : चिंता ही अहंकार की निशानी है, इसे ज़रा समझाइए।
दादाश्री : चिंता अहंकार की निशानी क्यों कहलाती है? क्योंकि उसके मन में ऐसा लगता है कि 'मैं ही इसे चला रहा हूँ'। इससे उसे चिंता होती है। इसका चलानेवाला मैं ही हूँ', इसलिए वह फिर 'इस लड़की का क्या होगा? इन बच्चों का क्या होगा? यह कार्य पूरा नहीं हुआ तो क्या होगा?' ये चिंता अपने सिर लेता है। खुद अपने आपको कर्ता समझता है कि 'मैं ही मालिक हूँ और मैं ही करता हूँ।' पर वह खुद कर्ता है नहीं और व्यर्थ चिंताएँ मोल लेता है।
फिर वह भी देखादेखी में कि फलाँ भाई को देखिये बेटी ब्याहने की कितनी चिंता करते हैं और मुझे तो चिंता नहीं। फिर चिंता ही चिंता में तरबूजे जैसा हो जाता है। और बेटी ब्याहने का समय आने पर हाथ में चार आने भी नहीं होते। चिंतावाला रुपये कहाँ से लायेगा?
संसार में हों और चिंता में रहें और चिंता नहीं मिटे तो फिर उसे
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लड़की अपना टाइमिंग वगैरह का प्रबंध करके आई है।'
हमें चिंता कब करनी चाहिए कि जब आस-पास के लोग कहें कि. 'बेटी का कुछ किया?' तब हम समझें कि अब सोचने का वक्त आ गया है और तब से उसके लिए प्रयत्न करते रहना। यह तो आस- पासवाले कुछ कहते नहीं और उस से पहले, पंद्रह साल पहले से चिंता करने लगे। फिर अपनी बीवी से भी कहेगा कि, 'तुझे याद रहेगा कि हमारी बेटी बड़ी हो रही है और ब्याहनी है?' अब बीबी को क्यों चिंता करवाता है?
कुसमय की चिंता सत्रह साल पहले बेटी ब्याहने की चिंता करता है, तो मरने की चिंता क्यों नहीं करता? तब कहेगा कि, 'नहीं मरने का तो याद ही मत करवाना।' तब मैं ने पूछा कि, 'मरने का याद करने में क्या हर्ज है? आप नहीं मरनेवाले क्या?' तब कहे कि, 'यदि मरना याद करवाओगे तो आज का सुख चला जाता है और आज का हमारा सारा स्वाद बिगड़ जाता है।' 'तब बेटी के ब्याह को क्यों याद करता है? तब भी तेरा स्वाद चला जायेगा न? और बेटी अपना ब्याह का सभी लेकर आई है। माँ-बाप तो इसमें निमित्त हैं।' बेटी अपने ब्याह के सभी साधन लेकर आई होती है। बैंक बैलेन्स, पैसे, सभी लेकर आई है। कम या ज्यादा जितना ख़र्च हो वह एक्जेटली (निश्चित रूप से) सब कुछ लेकर आई होती है।
बेटी की चिंता आपको नहीं करनी चाहिए। आप बेटी के पालक हैं। बेटी अपने लिए लड़का भी लेकर आई होती है। हमें किसी से कहने जाने की जरुरत नहीं है कि लड़का पैदा करना। हमारी बेटी है, उसके लिए लड़का पैदा करना, ऐसा कहने जाना पड़ता है? अर्थात सारा सामान तैयार लेकर आई होती है। तब बाप कहेगा, 'यह पच्चीस की हुई, अभी तक उसका ठिकाना नहीं लगता। ऐसा है, वैसा है।' वह सारा दिन गाता रहता है। अरे, वहाँ पर लड़का सत्ताईस का हो गया है, पर तुझे मिला नहीं है, तो शोर क्यों मचाता है? सो जा न चुपचाप। वह
सत्ता में नहीं हो, उसका चित्रण मत करो। पिछले अवतार की दोतीन बेटियाँ थी, बेटे थे, उन सभी को इतने छोटे-छोटे छोड़कर आये थे, तो उन सब की चिंता करते हो? क्यों? और ऐसे मरते समय तो बहुत चिंता होती है न, कि छोटी बेटी का क्या होगा? पर यहाँ फिर नया जन्म लेता हो तो पिछले जन्म की कुछ चिंता ही नहीं न! खत-वत कुछ भी नहीं!! अर्थात यह सारी परसत्ता है, उसमें हाथ ही नहीं डालना। इसलिए जो हो वह 'व्यवस्थित में हो तो भले हो, और नहीं हो तो भले न हो।'
चिंता करने के बजाय धर्म की ओर मोड़ें प्रश्नकर्ता : घर के जो प्रमुख व्यक्ति हों, उन्हे जो चिंता होती है, वह कैसे दूर करें?
दादाश्री : कृष्ण भगवान ने क्या कहा है कि 'जीव तू काहे सोच करे, कृष्ण को करना हो सो करे।' ऐसा पढ़ने में आया है? तो फिर चिंता करने की क्या जरुरत है?
इसलिए बच्चों को लेकर क्लेश क्यों करते हो? धर्म के रास्ते पर मोड़ दो उनको, सुधर जायेंगे।
कुछ तो व्यवसाय को लेकर चिंता करते ही रहते हैं। वे क्यों चिंता करते है? मन में ऐसा लगता है कि, 'मैं ही चलाता हूँ'। इसलिए चिंता होती है। 'वह कौन चलानेवाला है' ऐसा किसी भी तरह का अवलंबन लेता नहीं है। भले ही, तू ज्ञान से नहीं जानता हो, पर और किसी प्रकार का अवलंबन तो ले। क्योंकि तू नहीं चलाता है ऐसा थोड़ाबहुत तेरे अनुभव में तो आया है। चिंता तो सब से बड़ा इगोइज़म है।
_अधिक चिंतावाले कौन ? प्रश्नकर्ता : दो वक्त की रोटी जितना भी पूरा न हो, उसे तो रोज
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की चिंता रहेगी ही न कि, 'कल क्या करेंगे? कल क्या खायेंगे?'
दादाश्री : नहीं, वह ऐसा है न, सरप्लस (जरुरत से ज्यादा) की चिंता होती है। खाने की चिंता किसी को भी नहीं होती। सरप्लस की ही चिंता होती है। यह कुदरत ऐसी व्यवस्थित है कि सरप्लस की ही चिंता। बाकी, छोटे से छोटा पौधा चाहे कहीं भी उगा हो, वहाँ जाकर पानी छिड़क आती है। इतनी सारी तो व्यवस्था है। यह रेग्युलेटर ऑफ द वर्ल्ड है। वह वर्ल्ड को रेग्युलेशन में ही रखता है।
प्रश्नकर्ता : आपको सभी ऐसे सरप्लसवाले ही मिले लगते हैं कि जिन लोगों को चिंता होती ही है, डेफिशिट वाला (जरुरत से कम) कोई मिला नहीं लगता।
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है, डेफिशिट वाले भी बहुत मिले हैं, पर उनको चिंता नहीं होती। उन्हें मन में जरा ऐसा होता है कि आज इतना लाना है, वह ले आते हैं। अर्थात चिंता-बिंता करें वे ओर होंगे, ये तो भगवान को सौंप देते हैं। 'उसे अच्छा लगा वह सही' ऐसा कहकर चलाते रहते हैं। और ये तो भगवान नहीं, ये तो खुद कर्ता है न! कर्म का कर्ता मैं और भोक्ता भी मैं, इसलिए फिर चिंता सिर पर लेता है।
चिंता, वहाँ लक्ष्मी टिके ? प्रश्नकर्ता : अगर ऐसा हो तब तो फिर लोग कमाने ही नहीं जायें और चिंता ही नहीं करें।
दादाश्री : नहीं, कमाने जाते हैं, वह भी उसके हाथ में नहीं हैं न! वे सारे नेचर (कुदरत) के घुमाये घूमते लट्टू हैं और मुँह से अहंकार करते हैं कि मैं कमाने गया था। और बिना वजह चिंता करते हैं। चिंतावाला रूपया लायेगा कहाँ से? लक्ष्मीजी का स्वभाव कैसा है? लक्ष्मी चिंतावाले के यहाँ मकाम नहीं करती हैं। जो आनंदी हो, जो भगवान को याद करता हो, उसके यहाँ लक्ष्मीजी जायेंगी।
चिंता से धंधे की मौत प्रश्नकर्ता : धंधे की चिंता होती है, बहुत अड़चनें आती है।
दादाश्री : चिंता होने लगे तो समझना कि कार्य अधिक बिगड़ेगा। चिंता नहीं होती तो समझना कि कार्य नहीं बिगड़ेगा। चिंता कार्य की अवरोधक है। चिंता से तो धंधे की मौत आती है। जो चढ़े-उतरे उसी का नाम धंधा, पूरण-गलन है वह। पूरण हुआ उसका गलन हुए बिना रहेगा ही नहीं। इस पूरण-गलन में हमारी कोई मिल्कियत नहीं है। और जो हमारी मिल्कियत है, उसमें कुछ पूरण-गलन होता नहीं है। ऐसा शुद्ध व्यवहार है। यह आपके घर में आपके बीवी-बच्चे सभी पार्टनर्स हैं न?
प्रश्नकर्ता : सुख-दुःख के भुगतान में हैं।
दादाश्री : आप अपने बीवी-बच्चों के अभिभावक (संरक्षक) कहलाते हैं। अकेले अभिभावक को ही चिंता क्यों करनी चाहिए? और घरवाले तो उल्टा कहते हैं कि आप हमारी चिंता मत करना। चिंता से कुछ बढ़ जायेगा क्या?
प्रश्नकर्ता : नहीं बढ़ता।
दादाश्री : नहीं बढ़ता तो फिर वह गलत व्यापार कौन करे? यदि चिंता से बढ़ जाता हो तो अवश्य करना।
उस समझ से चिंता गई... धंधा करने में तो बहुत बड़ा कलेजा चाहिए। कलेजा टूट जाये तो धंघा ठप्प हो जायें।
पहले एक बार हमारी कंपनी को घाटा हुआ। हमें ज्ञान होने से पहले, तब हमें सारी रात नींद नहीं आयी, चिंता होती रहती थी। तब भीतर से उत्तर मिला कि इस घाटे की चिंता अभी कौन-कौन करता
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होगा? मुझे लगा कि मेरे हिस्सेदार तो शायद चिंता नहीं भी करते होंगे। मैं अकेला ही चिंता करता होऊँ। और बीवी-बच्चे सभी साझेदार हैं, तो वे तो कुछ जानते ही नहीं। अब वे कुछ जानते नहीं, तब भी उनका चलता है। तो मैं अकेला ही कमअक्ल हूँ, जो ये सारी चिंताएँ लेकर बैठा हूँ। फिर मुझे अक्ल आ गई। क्योंकि वे सभी साझेदार होकर भी चिंता नहीं करते, तो क्या मैं अकेला ही चिंता किया करूं?
सोचिए मगर चिंता मत कीजिए चिंता यानी क्या? यह समझ लेना चाहिए। हमें किसी भी विषय को लेकर, धंधे को लेकर, और किसी भी संबंध में, यदि कोई बीमारी हो और मन में विचार उठे, उसके लिए विचार आया, कुछ हद तक
और फिर वह विचार हमें भँवर में डाले और चक्कर चले तो समझना कि यह उलटे रास्ते चढ़ा है, इसलिए बिगड़ा। वहाँ से फिर चिंता शुरु हो जाती है।
विचार करने में हर्ज नहीं है। विचार करने का अधिकार है, कि भाई यहाँ तक विचार करना, और विचार जब चिंता में परिणित हो तो बंद कर देना चाहिए। यह एबाव नोर्मल विचार, चिंता कहलाते है। इसलिए हम विचार करेंगे मगर जो एबाव नोर्मल हुआ और अकुलाया पेट में, तब बंद कर देंगे।
प्रश्नकर्ता : आम तौर पर भीतर देखते रहे तब तक विचार कहलाता हैं और भीतर चिंता होने पर उलझ गया कहलाता है।
दादाश्री : चिंता हुई माने लपटाया ही न। चिंता हुई यानी वह समझता है कि मेरे कारण ही चलता है, ऐसा समझ बैठता है। इसलिए वह सब पचड़े में पड़ने जैसा ही नहीं है और है भी ऐसा ही। यह तो सभी मनुष्यों को यह रोग लग गया है। अब जल्दी कैसे निकले? जल्दी निकलनेवाला नहीं न! आदत-सी हो गई है, वह जायेगी नहीं न!
हेबीच्युएटेड (आदत से मज़बूर)।
प्रश्नकर्ता : आपके पास आये तो निकल जाता है न?
दादाश्री : हाँ, निकल जाता है पर धीरे धीरे निकलता है, झट से नहीं निकलता न!
परसत्ता हाथ में ले, वहाँ चिंता होगी आपको कैसा है? कभी उपाधि होती है? चिंता हो जाती है?
प्रश्नकर्ता : यह हमारी बड़ी बेटी की सगाई तय नहीं होती, इसलिए उपाधि हो जाती है।
दादाश्री : आप के हाथ में हो तो उपाधि कीजिए न, पर यह बात आपके हाथ में है? नहीं है। तो फिर उपाधि क्यों करते हैं? तब कुछ इन सेठजी के हाथ में है? इस बहन के हाथ में है?
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : तब किसके हाथ में है यह जाने बगैर हम उपाधि करें, यह किसके समान है कि ताँगा चल रहा है, उस पर हम दस आदमी बैठे हैं, अब उसे चलानेवाला चला रहा है और अंदर हम शोर मचायें कि, 'ए, ऐसे चला, ए, ऐसे चला' तो क्या होगा? जो चलाता है, उसे देखा कीजिए न ! कौन चलानेवाला है' यह जानें तो हमें चिंता नहीं होगी। आप रात-दिन चिंता करते हैं? कहाँ तक करेंगे? उसका अंत कब आयेगा यह मुझे बताइए?
ये बहन तो अपना लेकर आई है, क्या आप अपना लेकर नहीं आयी थी? ये सेठजी आपको मिले कि नहीं मिले? यदि सेठजी आपको मिल गये, तो इस बहन को क्यों नहीं मिलेंगे? आप ज़रा धीरज तो रखो। वीतराग मार्ग में हैं और ऐसी धीरज नहीं धरेंगे तो उससे तो आर्तध्यान होगा, रौद्रध्यान होगा।
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प्रश्नकर्ता : ऐसा नहीं, मगर स्वभाविक फिक्र तो होगी न?
दादाश्री : वह स्वाभाविक फिक्र, वही आर्तध्यान और रौद्रध्यान कहलाता है, भीतर आत्मा को पीड़ा पहुँचाई हमने। अन्य को नहीं पहुँचाते हो तो अच्छा, मगर यह तो आत्मा को पीड़ा पहुँचाई।
चिंता से बँधे, अंतराय कर्म चिंता करने से तो अंतराय कर्म होता है और कार्य विलंबित होता है। हमें किसी ने कहा हो कि फलाँ जगह लड़का है, तो हम प्रयत्न करें। चिंता करने को भगवान ने मना कीया है। चिंता करने से तो अधिक अंतराय होता है। और वीतराग भगवान ने क्या कहा है कि, 'भाई, यदि आप चिंता करते हैं तो मालिक आप ही हैं? आप ही दुनिया चलाते हैं? इसे यों देखा जाये तो मालूम होगा कि खुद को संडास जाने की भी स्वतंत्र शक्ति नहीं है। वह तो जब बंद हो जाये तब डॉक्टर बुलाना पड़ता है। तब तक वह शक्ति हमारी है, ऐसा हमें लगता है। पर वह शक्ति अपनी नहीं है। वह शक्ति किसके अधीन है, यह सब जानकारी नहीं रखनी चाहिए क्या?
इसका चलानेवाला कौन होगा? बहन, आप तो जानती होगी? यह सेठजी जानते होंगे? कौन होगा चलानेवाला, या आप चलानेवाले हैं?
चलानेवाले संयोग... कर्ता कौन है? यह संयोग कर्ता है। ये सारे संयोग, सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स इकट्ठा होते हैं, तब कार्य हो ऐसा है। हमारे हाथ में सत्ता नहीं है। हमें तो संयोगों को देखते रहना है कि संयोग कैसे हैं। संयोग इकट्ठे होते है तो कार्य हो ही जाता है। कोई मनुष्य मार्च महिने में बरसात की आशा रखे वह गलत कहलाता है। और जून की पंद्रह तारीख आई कि संयोग इकट्ठे हुए। काल का संयोग इकट्ठा हुआ, पर बादलों
का संयोग नहीं मिला, तो बिन बादल बरसात कैसे होगी? पर बादल जमा हुए, काल आ मिला, फिर बिजलियाँ कड़की और एविडन्स इकट्ठे हुए, उससे बरसात होगी ही। अर्थात संयोग आ मिलने चाहिए। मनुष्य संयोगाधीन है, पर खुद ऐसा मानता है कि, 'मैं कुछ करता हूँ। पर वह कर्ता है, यह भी संयोगाधीन है। एक संयोग बिखर गया, तो उससे वह कार्य नहीं हो सकता।
___'मैं कौन हूँ' यह जानने पर कायमी हल
वास्तव में तो 'मैं कौन हूँ' यह जानना चाहिए न, खुद के ऊपर बिज़नेश करेंगे, तो साथ आयेगा। नाम पर बिज़नेस करेगें तो हमारे हाथ में कुछ नहीं रहेगा। थोड़ा-बहुत समझना चाहिए कि नहीं? 'मैं कौन हूँ' यह जानना होगा न!
यहाँ आपको हल निकाल दें, फिर चिंता-वरीज़ कुछ नहीं होगी कभी। चिंता होती है, यह अच्छा लगता है? क्यों नहीं लगता? ।
अनंत काल से भटक भटक करते हैं ये जीव, अनंत काल से। तब किसी समय कोई बार ऐसे प्रकाश स्वरुप ज्ञानी पुरुष मिल जाते हैं, तब छुटकारा दिलवा देते है।
टेन्शन अलग! चिंता अलग ! प्रश्नकर्ता : तो उस चिंता के साथ अहंकार किस तरह?
दादाश्री : मैं नहीं होऊँ तो चलेगा नहीं, ऐसा उसे लगता है। यह मैं ही करता हूँ। मैं नहीं करूँ तो नहीं होगा, अब यह होगा? सुबह में क्या होगा?' ऐसा करके चिंता करता है।
प्रश्नकर्ता : चिंता किसे कहते हैं? दादाश्री : किसी भी वस्तु को सर्वस्व मानकर उसका चिंतन
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करना, उसे चिंता कहते हैं । बहु बीमार हुई हो, अब पैसे से भी ज्यादा अगर बहू ही सर्वस्व लगती हो, तो वहीं से उसे चिंता होने लगेगी। उसे सब से ज्यादा महत्व दिया उसने और अधिक माना उसे, इसलिए चिंता घुस जायेगी और जिसके लिए सर्वस्व आत्मा है, उसे फिर चिंता काहे की होगी?
प्रश्नकर्ता : टेन्शन यानी क्या? चिंता तो समझ में आ गयी, अब टेन्शन की व्याख्या बताइए कि टेन्शन किसे कहें?
दादाश्री : टेन्शन उसके जैसा ही अंश है। पर उसमें सर्वस्व नहीं होता, सभी तरह के तनाव होंगे। नौकरी का ठिकाना लगता नहीं है, क्या होगा? एक ओर बीवी बीमार है, उसका क्या होगा? लड़का ठीक से स्कूल नहीं जाता, उसका क्या? यह सभी तनाव-टेन्शन कहलाते हैं। हमने तो सत्ताइस सालों से टेन्शन ही नहीं देखा है न!
अब सावधानी और चिंता में बहुत फर्क। सावधानी यह जागृति है और चिंता यानी जी जलाते रहना।
नोर्मालिटी से है मुक्ति प्रश्नकर्ता : परवशता और चिंता दोनों साथ नहीं जाते?
दादाश्री : चिंता तो एबव नोर्मल इगोइज़म है और परवशता वह इगोइजम नहीं है। परवशता तो लाचारी है और चिंता वह एबव नोर्मल इगोइज़म है। एबव नोर्मल इगोइज़म हो तो चिंता होगी वर्ना नहीं होगी। यह रात को घर में नींद किसे नहीं आती होगी? तब कहें, जिसे इगोइज़म ज्यादा है उसे।
इगोइज़म इस्तेमाल करने को कहा है, एबव नोर्मल इगोइज़म इस्तेमाल करने को नहीं कहा। अर्थात चिंता करना गुनाह है और उसका परिणाम जानवर गति होती है।
प्रश्नकर्ता : चिंता नहीं हो, उसके लिए उपाय क्या?
दादाश्री : वापस लौटना। वापस लौटना चाहिए या तो इगोइज़म बिलकुल खतम करना चाहिए। ज्ञानी पुरुष हों तो ज्ञानी पुरुष 'ज्ञान' दे तो सब हो जाता है।
चिंता किस तरह जायें? प्रश्नकर्ता : चिंता क्यों नहीं छूटती? चिंता से मुक्त होने के लिए क्या करना?
दादाश्री : चिंता बंद हुई हो, ऐसा मनुष्य ही नहीं मिलेगा। कृष्ण भगवान के भक्त को भी चिंता बंद हुई नहीं होती है न! और चिंता से सारा ज्ञान अंधा हो जाता है, फ्रेक्चर हो जाये।
संसार में एक मनुष्य ऐसा नहीं होगा कि जिसे चिंता नहीं होती हो। साधु-साध्वी सभी को कभी न कभी तो चिंता होती ही है। साधु को इन्कमटेक्स नहीं होता, सेल्सटेक्स नहीं होता, न भाड़ा होता है, फिर भी कभी न कभी चिंता होती है। शिष्य के साथ झंझट हो तो भी चिंता हो जाती है। आत्मज्ञान बगैर चिंता जाती नहीं है।
एक घण्टे में तो तेरी सारी चिंताएँ मैं ले लेता हूँ और गारन्टी देता हूँ कि यदि एक भी चिंता हो तो वकील कर के अदालत में मुझ पर केस चलाना। ऐसे हमने हजारों लोगों को चिन्ता रहित किया हैं। ऐसा माँगना कि जो तेरे पास से कभी नहीं जाये। ये नाशवंत चीजें मत माँगना। कायमी सुख माँग लेना।
हमारी आज्ञा में रहे और एक चिंता हो तो फिर दावा दायर करने की छूट दी है। हमारी आज्ञा में रहना। यहाँ सब मिले ऐसा है। इन सभी से शर्त क्या रखी है जानते हो तुम? एक चिंता हो तो मुझ पर दो लाख का दावा दायर करना।
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प्रश्नकर्ता : आपके पास से ज्ञान पाया, मन-वचन-काया आपको अर्पण किये, फिर चिंता ही नहीं होती है।
दादाश्री : होती ही नहीं।
चिंता गई , उसका नाम समाधि। उससे फिर पहले से काम भी ज्यादा होगा, क्योंकि उलझन नहीं रही न फिर! यह ऑफिस जाकर बैठा कि काम होता रहे। घर के विचार नहीं आते, बाहर के विचार नहीं आते, और किसी प्रकार के विचार ही नहीं आते और संपूर्ण एकाग्रता रहे।
वर्तमान में बरते वह सही लोगों को तीन साल की एक ही बेटी हो तो, मन में ऐसा होता है कि यह बड़ी होगी तो उसे ब्याहनी होगी, उसमें खर्च होगा। ऐसी चिंता करने की ना कही है। क्योंकि जब उसका टाईमिंग होगा. तब सारे ऐविडन्स (संयोग) इकट्ठा हो जायेगें। इसलिए टाईमिंग (समय) आने तक आप उसमें हाथ मत डालना । आप अपने तरीके से बेटी को खिलाये-पीलायें, पढ़ायें, लिखाये लेकिन आगे की सारी चिंता मत कीजिए, वर्तमान को नजर में रख कर, आज के दिन के लिए ही व्यवहार कीजिए। भूतकाल तो बीत गया। जो आपका भूतकाल है, उसे क्यों उखाड़ते हैं? नहीं उखाड़ते न! भूतकाल बीत गया, उसे तो कोई मूर्ख मनुष्य भी नहीं उखाड़ता। भविष्य व्यवस्थित के हाथों में है, तब फिर हम वर्तमान में ही रहें। अभी चाय पीते हैं तो आराम से चाय पीना, क्योंकि भविष्य व्यवस्थित के हाथों में है। हमें क्या झंझट? इसलिए वर्तमान में ही रहना, खाना खाते समय खाने में पूर्ण चित्त रखकर खाना। पकौड़े किसके बने हैं, यह सब आराम से जानना। वर्तमान में रहना माने क्या कि बहीखाता लिखते हैं तो बिलकुल एक्युरेट (पूर्णतया) उसी में ही चित्त रखना चाहिए। क्योंकि चित्त भविष्य में आगे दौड़ता है तो उससे आज का बहीखाता बिगड़ता है। भविष्य के विचार से होनेवाली किच-किच के कारण, आज का बहीखाता बिगड़ता
है। भूल-चूक हो जाती है, लिखावट ठीक से नहीं होती। पर जो वर्तमान में रहता है, उसकी एक भी भूल नहीं होती, उसे चिंता नहीं होती।
चिंता, नहीं है डिस्चार्ज प्रश्नकर्ता : क्या चिंता डिस्चार्ज हैं?
दादाश्री : चिंता डिस्चार्ज में नहीं आती, क्योंकि उसमें 'करनेवाला' होता है।
जो चिंता चार्ज रूप में थी, वह अब डिस्चार्ज रूप में होती है, उसे हम सफोकेशन (घुटन) कहते हैं। क्योंकि भीतर छूने नहीं देते न ! अहंकार से आत्मा अलग वर्तता है न! एकाकार होते थे, तब वह चिंता थी।
अब चार्ज हुई चिंता है वह डिस्चार्ज होते वक्त तो सफोकेशन होगा। जैसे चार्ज हुआ था और डिस्चार्ज होते समय आत्मा अलग होने से क्रोध (आत्मज्ञान होने से) वह गुस्सा हो गया। उसी प्रकार आत्मा के अलग बरतने के कारण जो कुछ भी होता है, वह सब अलग ही है।
अर्थात यह ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात चिंता होगी ही नहीं, वह सफोकेशन है खाली। चिंतावाले तो मुख पर से ही मालूम हो जाये। यह जो होता है, वह तो सफोकेशन, घुटन होती है।
हमें रास्ता चित्रित करके दिया हो, और उसे समझने में हमारी गलती हो गई, तो फिर हमें उलझन होगी, उसे चिंता नहीं कहते, वह घुटन कहलाती है। अर्थात चिंताएँ नहीं होगी। चिंताओं मे तो तड़-तड़ करके खून जला करता है।
'व्यवस्थित' का ज्ञान वहाँ चिंता गायब प्रश्नकर्ता : 'व्यवस्थित' यदि ठीक से समझ में आ जाये, तो चिंता या टेन्शन कुछ भी नहीं रहेगा?
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________________ चिंत्ता दादाश्री : ज़रा भी नहीं रहता। 'व्यवस्थित' यानी सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स। 'व्यवस्थित' तब तक समझते रहना है कि आखरी 'व्यवस्थित,''केवल ज्ञान' होकर रहे। और व्यवस्थित समझ में आ गया तो केवल ज्ञान समझ जायेंगे। यह 'व्यवस्थित' की खोजबीन हमारी कितनी सुंदर है! यह गज़ब की खोजबीन है!! अनंत अवतार के लिए संसार कौन खड़ा करता था? कर्ता बन बैठे थे, उसकी चिंता। प्रश्नकर्ता : इस 'ज्ञान' से अब मुझें भविष्य की चिंता नहीं रहती दादाश्री : आप तो यह व्यवस्थित है' ऐसा कह देंगे न ! व्यवस्थित आपकी समझ में आ गया है न! कोई परिवर्तन होनेवाला नहीं हैं / सारी रात जागकर दो साल बाद के विचार करेंगे न, तो वे युज़लेस (व्यर्थ) विचार हैं, वेस्ट ऑफ टाईम एण्ड एनर्जी (समय और शक्ति का दुर्व्यय) प्रश्नकर्ता : आपने जो 'रियल' और 'रिलेटिव' समझाया, उसके बाद चिंता नहीं रही। दादाश्री : बाद में तो चिंता ही नहीं होती न ! इस ज्ञान के पश्चात चिंता हो ऐसा है ही नहीं। यह मार्ग पूर्णतया वीतराग मार्ग है। पूर्णतया वीतराग मार्ग यानी क्या, कि चिंता ही नहीं होती। यह तमाम आत्मज्ञानीयों का, चौबीस तीर्थंकरों का मार्ग है, यह और किसी का मार्ग नहीं है। - जय सच्चिदानंद