Book Title: Chandravyakaranam
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 13
________________ [ 7 ] होकर नानावों को जन्म देता है जो 'कार्य-नाद' कहलाते हैं (वर्णात्मना- . विर्भवति गद्यपद्यादिभेदशः)। कुछ शैवागमों में प्रात्मा से उत्पन्न होने वाली वर्णादि की इस बहुमुखी सृष्टि को एक दूसरे ढंग से भी बतलाया गया है / आत्मा शिव है, उसकी शक्ति का नाम ज्ञान-शक्ति है जो सारी सृष्टि का निमित्त कारण है। शिव और शक्ति मिलकर एक संयुक्त शिव-शक्ति-तत्त्व बनता है जिससे परमेश्वर की परिग्रह-शक्ति या क्रिया-शक्ति का जन्म होता है / परिग्रह-शक्ति बिन्दु कहलाती है और सृष्टि का उपादान कारण है। यह बिन्दु शुद्ध तथा अशुद्ध दो प्रकार का है। शुद्ध बिन्दु के अपर नाम महाबिन्दु तथा महामाया और अशुद्धबिन्दु के बिन्दु एवं माया भी हैं / शक्ति तथा बिन्दु के सम्बन्ध को 'भेदज्ञान' या विकल्प कहते हैं। इसी विकल्प का आश्रय लेकर शिव (आत्मा) शुद्धबिन्दु में क्षोभ उत्पन्न करता है / जिसके फलस्वरूप उससे शब्द और अर्थ की दो धारायें चलती हैं / इन दोनों की पृथक्-पृथक् चार अवस्थायें परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी होती हैं / शुद्धबिन्दु से होने वाली यह सृष्टि 'शुद्ध सृष्टि' कहलाती है। अशुद्ध बिन्दु भी, इसी प्रकार शिव (प्रात्मा) द्वारा क्षुब्ध किये जाने पर, अशुद्ध सृष्टि को जन्म देता है और उससे उद्भूत शब्द एवं अर्थ की धारायें भी परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी, इन चार अवस्थाओं में व्यक्त होती हैं। ये दोनों प्रकार की सृष्टियां जिसे बिन्दु से उत्पन्न हुई वह 'अचित्' है / अतः इन दोनों को पार करके ही 'चित्' स्वरूप शिव (प्रात्मा) का साक्षात्कार होता है; ओंकार प्रत्यक्ष हो जाता है / वेद का व्याकरण __यह प्रात्मा अथवा प्रणव (ओंकार) की शक्ति वाक् के अव्याकृता से व्याकृता होने की कथा कही गई है / इसी को एक दूसरे रूप में भी कहा जाता है / प्रात्मा या प्रकार देव है जो अपने को वेद द्वारा व्यक्त करता है: इसीलिए 'वेदेन देवोऽसि' का मंत्र प्रचलित हुआ / अतः वेद भी वाक् का पर्यायवाची हुआ और जिस प्रकार वाक् के नानारूप प्रोंकार (अपरप्रणव) से प्रसूत होते हैं (ओंकार एव सर्वा वाक्.........सैषा पूज्यमाना बह्वी भवति), उसी प्रकार 'सभी वाक्' वेद में अनुप्रविष्ट बताई जाती हैं (सर्वाः वाच: वेदमनुप्रविष्टाः) वेद के द्वारा जब प्रात्मा (पुरुष) व्यक्त होता है, तो सबसे पहले वह 'छन्दस्य' पुरुष होता है; फिर ऋङमय, यजुर्मय तथा साममय-नाम से 'त्रिवृत' होता (एष वै छन्दस्यः प्रथमो पुरुषः.........स उ एव एष ऋङमयः पजुर्मयः साममयः

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