________________ राजः पुरुषः) जब प्रसिद्ध पुरुषसूक्त में पुरुष से छन्दस, ऋक्, यजु और साम की सृष्टि हुई बताई जाती है अथवा जब बृहदारण्यक उपनिषद् में आत्मा को "वाक्' द्वारा छन्द, ऋक्, यजु और साम की सृष्टि (स तया वाचा तेनात्मनेदं सर्वमसृजत् यदिदं किं चर्चा यजूंषि सामानि छन्दांसि) हुई कही जाती है, तो यही बात अभिप्रेत समझी जानी चाहिए। यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उक्त उद्धरणों में 'छन्द' शब्द 'मथर्ववेद' के लिए ही प्रयुक्त हुमा है, क्योंकि सृष्टि-प्रसंग में ऋक आदि के साथ अथर्ववेद का ही प्रयोग मिलता है, और इसीलिए हरिवंशपुराण में अथर्ववेद को निश्चित रूप से छन्द कहा गया है: ऋची यजंषि सामानि छन्दस्यापर्षणानि च / चत्वारस्त्वखिला वेदाः सरहस्यास्सविस्तराः // - इस प्रकार वेद की यह चतुर्धा व्याकृति होती है। स्फोटवाद की एक दृष्टि से स्फोटात्मा (पर शब्दब्रह्म) अपनी वाक् (शक्ति) का स्फुरण करके अपर शब्दब्रह्म अथवा 'वेदबीज, ओंकार को ब्रह्म परमात्मन् के साक्षात् वाचक के रूप में प्रकट करता है जिसके म, उ, म तीन वर्ण (जो क्रमशः ऋक्, यजु, साम के प्रतीक हैं) सत्व, रजस, तमस नामक गुणों की अर्थवृत्तियों (ज्ञान, क्रिया, इच्छा) तथा अन्तस्थ, ऊष्म, स्वर, स्पर्श, दीर्घ, ह्रस्व आदि लक्षण से युक्त समस्त वर्ण. समूह में परिणत हो जाते हैं: शृणोति य इमं स्फोटं सुप्ते श्रोत्रे च शून्यवृक् / येन बाग व्यज्यते यस्य व्यतिराकाश प्रात्मनः।। स्वधाम्ना ब्रह्मणः साक्षाद्वाचकः परमात्मनः / स सर्वमन्त्रीपमिषवेदबीजं सनातनम् / / सस्य ह्यासन् त्रयो वर्णा प्रकाराचा भूगूवहाः। . 'पार्यन्ते येस्त्रयो गुणानामर्थवृत्तयः / / ततोऽमरसमाम्नायमसृजद् भगवान स्वयम् / मन्तस्थोष्मस्वरस्पर्शवीर्घहस्वादिलक्षणम् वेद की इस व्याकृति की तुलना ऊपर उल्लिखित पूर्वपाणिनीयम् के शब्दासम्बन्ध से वर्ण-पदादिरूप में होने वाले नानारूपात्मक व्याकरण से भलीभांति को जा सकती है। सनत्सुजातीय में 'यज्ञसंतति' के लिये एक वेद की 1. ऋ० 10, 60, 3. तु० क. यस्मादृचो प्रपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन् / सामानि यस्य लोमानि अथर्वाङ्गिरसो मुखम् / / (म० बे० 10, 7, 20)