________________ / 16 ] संभवतः यह अतिक्रमण प्रारंभ में पदों के संकलन तथा वर्गीकरण तक हो सीमित रहा हो और निघंटु, पुष्पसूत्र, फिटसूत्र आदि की रचना इसी परंपरा में हुई हो / जैसा कि पहले निर्देश हो चुका है, सूक्ष्मवाक की व्याकृति ही इंद्र का व्याकरण है, अतः कोई आश्चर्य नहीं कि परंपरा में ऐन्द्रव्याकरण वर्णसमूह' और अधिक से अधिक पदसमष्टि से संबद्ध माना जाय / परन्तु पदसमूह के संकलन तथा वर्गीकरण के साथ ही उनके निर्वचन के प्रति जिज्ञासा होना स्वाभाविक है; अतः निरुक्त का आविर्भाव हुआ और उसके परिणामस्वरूप हुई शब्द की धातु-जिज्ञासा / काशकृत्स्न - व्याकरण ____ अतः अब प्राचीन सूक्ष्मवाक् की वर्गों में व्याकृतिमात्र को अथवा कुछ आगे बढ़ कर वर्णसमूह से बने पदों के संकलनमात्र को व्याकरण मानना पर्याप्त नहीं था। वर्ण मोर पदों की अभिव्यक्ति तो वाक् की अांशिक अभिव्यक्ति (काश, प्रकाश) है; उसके मागे पदों के मूल में स्थित धातु और प्रत्यय को व्याकृति को व्याकरण के क्षेत्र में लिए बिना वाक् की अभिव्यक्ति (काश) में कृत्स्नता सम्भव नहीं थी / अतः वर्ण, पद एवं धातु-प्रत्यय के समावेश से ही व्याकरण को संभवतः त्रिकं काशकृत्स्नम्' या काशकृत्स्नीयम्' की संज्ञा प्राप्त हुई। पं० युधिष्ठिर मीमांसक* का मत है कि काशकृत्स्न-व्याकरण को पहले काशकृत्स्न-तंत्र कहते थे और उसी. का संक्षिप्त नाम 'कातंत्र' है जो मूलतः तीन अध्यायों वाला ही था। काशकृत्स्नं गुरुलाघवम् ___ अस्तु व्याकरण के काशकृत्स्न होने पर उसके विकास का क्षेत्र खुल गया। अब उसमें व्याकरण की लघुता और गुरुता, सूक्ष्मता और स्थूलता दोनों का - 1. पं० युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा उद्धृत चरकव्याख्या____ शास्त्रेष्वपि प्रथ वर्णसमूह इति ऐन्द्रव्याकरणस्य / (सं० व्या० इ० पृ० 86) 2. तु. क०-नक पदजातम् यथा अर्थः पदम् इत्यंन्द्राणाम् / / (दुर्गः-निरुक्तत्ति, पृ० 10; सं० व्या० 30, पृ० 86) 3. काशिका 5, 1,58 / / 4. धाकटायन, ममोपावृत्ति 3, 2, 161 / 5. सं० व्या० इ० (द्वि० सं०) पृ० 504.505 / * 6. वही, पृ० 117 /