________________ [ 15 ] अभिव्यक्तियों का विवेचन उसी प्रकार अभिप्रेत है जिस प्रकार दूसरी दृष्टि से क्रमशः पूर्वमीमांसा एवं उत्तरमीमांसा में / प्रस: काशिका 6, 2, 104 में उल्लिखित पूर्वपाणिनीयं शास्त्रम् तथा हरदत्त द्वारा उसे 'पाणिनीयशास्त्र पूर्वचिरन्तनम्' कहा जाना इसी सूक्ष्म अभिव्यक्ति की ओर संकेत करता प्रतीत होता है। पूर्वसूत्र - परम्परा उक्त पूर्वपाणिनेय अथवा कात्यायन को सूक्ष्म व्याकृति की एक निश्चित परम्परा रही प्रतीत होती है, जिसके पारिभाषिक शब्द पाणिनेय-परम्परा से कुछ भिन्न माने जाते थे। पतंजलि के महाभाष्य में भी जहाँ जहाँ पूर्वसूत्र का उल्लेख है वहाँ-वहाँ इसी प्रकार की भिन्नता के दर्शन होते हैं / उदाहरण के लिये उसके अनुसार पूर्बसूत्र-परम्परा में वर्ण की अक्षर', तथा गोत्र की वृद्ध-संज्ञा होती है / पतंजलि द्वारा प्रयुक्त 'पूर्वसूत्र' शब्द के निम्नलिखित प्रयोग भी सम्भवतः इसी दृष्टि से समझे जा सकते हैं-...... पूर्वसूत्रनिर्देशो वापिशलमधीत इति / पूर्वसूत्रनिर्देशो पुनरयं द्रष्टव्यः / सूत्रे प्रधानस्योपसर्जनमिति संज्ञा क्रियते (4, 4, 14) पूर्वसूत्रनिर्देशश्च / चित्वान् चित इति (6, 1, 163) अथवा पूर्वसूत्र निर्देशोऽयं पूर्वसूत्रेषु च येऽनुबन्धा न तैरिहेतस्कार्याणि क्रियन्ते (7, 1, 18) पूर्वसूत्रनिर्देशश्च (8, 4, 7) निदेर्शोऽयं पूर्वसूत्रेण वा स्यात् (7, 1, 18) शिक्षा, प्रातिशास्य तथा निरक्त प्रारंभ में उक्त पूर्वपाणिनीयसूत्र-परंपरा का क्षेत्र सूक्ष्मवाक् को वर्णों या अक्षरों में व्याकृति तथा उनकी ध्वनियों तक ही सीमित रहा प्रतीत होता है। प्रतः शिक्षा एवं प्रातिशाख्यों की छन्दोबद्ध रचनाएँ इसी परंपरा में मानी जा सकती हैं / जैसा कि पूर्वपाणिनीयम् के "वर्णेभ्यः पदानि" तथा 'ते प्राक' सूत्रों से पता चलता है, वर्णों की व्याकृतिमात्र ही इस परंपरा का क्षेत्र होते हुये भी, किसी सीमा तक पदों को भी इसके क्षेत्र में घसीटने का प्रयत्न किया जाता था। 1. म० भाव 1, 1, 2 / 2. म० भा० 1, 2,68 /