________________ [ 12 ] अनित्य' एवं लौकिक व्याकरण का विषय माना गया है। यहां पाणिनि-शब्द की व्युत्पत्ति की ओर एक स्वाभाविक संकेत दिखाई पड़ता है। श्रीयुधिष्ठिर' मीमांसक ने पाणिनि-शब्द पर विचार करते हुये, पाणिनीय-शिक्षा के याजुषं पाठ में उपलब्ध 'पाणिनेय' नाम का उल्लेख किया है। पूर्वपाणिनीयम के क्षेत्र की उपर्युक्त प्राभ्यंतरिकता के विपरीत, पदादि की मीमांसा में स्वतः प्राप्त बाह्यता को देखते हुये पाणिनेय शब्द सार्थक प्रतीत होता है / संस्कृत में पाणि का अर्थ प्रायः हाथ होता है, और दूसरा अर्थ (जो प्रयोग में प्रायः नहीं मिलता) 'बाजार' है। जो हाथ से किया जाता है वह मनुष्यकृत है, कृत्रिम है; अत: पदों आदि की मीमांसा मनुष्यकृत या कृत्रिम होने से पाणिनेय (हस्तकार्य) कहला ही सकती है, जबकि परा, पश्यन्ती तथा मध्यमा के रूप में व्याकृत होती हुई प्राण से संयुक्त होकर स्थानप्रयत्न के संयोग से वर्णोत्पत्ति तक की व्याकृति को स्वभाव-नेय कहा जा सकता है। यदि पाणि को बाजार के अर्थ में ग्रहण करें, तो पाणि को एक 'व्यवहारभूमि' मानना पड़ेगा जहाँ विविध लोगों के बीच सम्पर्क होने से भाषा के व्याकरण की आवश्यकता पड़ती है; अतः व्याकरण को पाणि (बाज़ार) द्वारा जन्य माना जा सकता है। पाणिनेय (पाणिनीय) व्याकरण वह व्याकरण है जो स्वभावजन्य के विपरीत मनुष्यजन्य अथवा जन-सम्पर्कजन्य है। इसका अभिप्राय यह नहीं कि पाणिनि नाम का कोई वैयाकरण नहीं, परन्तु यह सम्भव है कि उसका अपना नाम कुछ और ही हो, परन्तु 'पाणिनेय' व्याकरए का सफल प्राचार्य होने के कारण उसको 'पाणिनेय' उपाधि मिली हो, जो कालान्तर में पाणिनि-रूप में बदल गई हो। पूर्वपाणिनीयता प्रस्तु, इसमें कोई संदेह नहीं कि पाणिनीय-व्याकरण के पाठ अध्यायों में सुबन्त और तिङन्त पदों की जो विस्तृत रचनाविधि दी गई है वह मनुष्य के कृतित्व का महान् चमत्कार है, लेकिन वर्ण-ध्वनियों द्वारा पदों के अस्तित्व में प्राने से पूर्व मन, प्राण तथा उच्चारण के स्थान और प्रयत्न के माध्यम से आत्मा की शक्ति (वाक'), जिन वर्णों के रूप में व्याकृत होती है, वह मनुष्य के आभ्यं 1. पू०पा०-१७-१८। 2. वही 16 / 3. वही 20 / 4. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, पृ० 175-176 / 5. जिसे पूर्व-पाणिनीयम् में 'शब्दो धर्मः' कहा है (पू० पा० 2 ) /