________________ के संबंधों में 'वैखरी' वाक् बन कर प्रकट होता है और दूसरी ओर वह अदृष्ट ज्ञान (अदृष्टं वा) वाला शब्दार्थ है जिसे ऊपर पराची या परा अव्याकृता वाक् कहा गया है / एक में स्वयं शब्द ही धर्मस्वरूप (शब्दो धर्मः) है जब कि दूसरे (लौकिक) के ज्ञान में धर्म (तज्ज्ञाने धर्मः) रहता है, क्योंकि पहले में शब्द नित्य तथा सूक्ष्म होने से वह शक्तिमान् प्रात्मा का 'धर्म' हो सकता है, परन्तु दूसरे में शब्द अनित्य एवं स्थूल (भाषण-ध्वनियों के रूप में) होने से वह स्वयं 'धर्म' नहीं हो सकता ; अतः वहां उसके ज्ञान में वह सूक्ष्मरूपेण निहित माना जा सकता है। ऐन्द्र-व्याकरण का पूर्वपाणिनीयत्व उपयुक्त विवेचन से प्रतीत होता है कि पूर्वपाणिनीयम् में जिस व्याकरण का उल्लेख है वह इंद्र द्वारा अव्याकृता पराची वाक् को व्याकृता किए जाने की आध्यात्मिक कथा है; यह शब्दानुशासन उस शब्द की दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत करता है जो वाक्यपदीय' के अनुसार 'अनादिनिधनं ब्रह्म' के रूप में नित्य होकर भी अनेक अनित्य वर्ण-ध्वनियों में व्यक्त होता है और जिसे अन्यत्र' 'वाक् ब्रह्म' भी कहा जाता है। इसी शब्द या वाक् के कभी कभी सुब्रह्म और ब्रह्म दो रूप स्मृत किये जाते हैं ; इनमें से पहला आत्मा है तथा दूसरा उसकी वह शक्ति जिसके द्वारा वह स्वयं अवर्ण होता हुआ भी अनेक वर्णो के रूप में अभिव्यक्त होता है / पहला धर्मी है, दूसरा' उसका धर्म; पहला शक्तिमान है, दूसरा शक्तिरूप। विष्णुसंहिता के शब्दों में ये दोनों ही पुरुष (मात्मा) ज्योति के दो रूप हैं, एक परदेवता और दूसरा अपरदेवता / एक मायी और दूसरी माया, और पहला दूसरे के सहारे ही लोक में 'बहुधा' भिन्न होता है / अहिर्बुध्न्य-संहिता" में यही माया पारमात्मिका अहंता तद्धर्म 1. 1,1 / 2. गो. ब्रा० 1, 2,10, वाग्धि ब्रह्म, ऐ० ब्रा०२, 15, 4, 21, वाग्वै ब्रह्म ऐ० ब्रा० 6, 3; श० ब्रा० 2, 1,4,10, 14,4,1,23, 14, 6.10, 5, वागिति तद् ब्रह्म-जै० 30,2,662, 13, 2, तै० ब्रा० ३,६,५.५ऐ०वा०.६, 3 इत्यादि / 3. वाग्वै ब्रह्म च सुब्रह्म चेति ऐ० ब्रा०६,३। 4. एकोऽवर्णः बहुधा शक्तियोगात्, श्वे० उ०, 30 / 5. शब्दो धर्मः, पू. पा० 1 / . देवतेऽपरं ज्योतिरेक एव परः पुमान् / स एव बहुधा लोके मायया भिद्यते स्वया // 7. सर्वभावात्मिका लक्ष्मीरहंता पारमात्मिका / तदधर्ममिणी देवो भूत्वा सर्वमिदं जगत् / /