Book Title: Buddha aur Mahavira tatha Do Bhashan
Author(s): Kishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
Publisher: Bharat Jain Mahamandal

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Page 123
________________ समालोचना निस्पृहा, दूसरो पर नैतिक सत्ता चलाने तक की अनिच्छा, जो छोड़ी नही जा सकती, ऐसी अपने अधीन रही हुई वस्तु का दूसरे के लिए अर्पण, यही शान्ति का मार्ग है, इसी में जगत की सेवा है, प्राणी-मात्र का सुख है, यही उत्कर्ष का उपाय है। जैसे किसी से कहे कि इस-इस रास्ते चले चलो, जहाँ यह रास्ता पूरा होगा, वहाँ वह अपने निश्चित स्थान पर पहुँच जायगा, वैसे ही इस मार्ग पर जाने वाला सत्य-तत्व के पास आ खड़ा रहेगा। अगर कुछ बाकी रहे तो वहाँ के किसी निवासी को पूछ कर विश्वास भर कर लेवे कि सत्य-तत्त्व यही है या नहीं ? ६. बुद्ध प्रकृति की विरलताः । लेकिन ऐस विचारी को जगत पचा नहीं सकता। वादो की था परोक्ष की पूजा में प्रविष्ट हुए बिना, ऐहिक या पारलौकिक किसी भी प्रकार के सुख की आशा के बिना, विरले मनुष्य ही सत्य, सदाचार और सद्विचार को लक्ष्य कर उसकी उपासना करते हैं। बादो, पूजाओ और आशाओं के ये संस्कार इतने बलवान हो जाते हैं कि बुद्धि को इनके बन्धन से मुक्त करने के पश्चात् भी व्यवहार में इनका बन्धन नहीं छोड़ा जा सकता और ऐसे आदमी का व्यवहार जगत के लिए दृष्टान्त रूप होने से, इन संस्कारों को जगत और भी दृढ़ता पूर्वक अपनाए रहता है। ७. बुद्ध-तीर्थकरवाद और अवतारवाद : ब्राह्मण धर्म मे चौवीस या दस अवतारों, बौद्धो में चौबीस शुद्धो और जैनो में चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता पोषित हुई है। -

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