Book Title: Buddha aur Mahavira tatha Do Bhashan
Author(s): Kishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
Publisher: Bharat Jain Mahamandal

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Page 158
________________ भोषण - कोष, वैर, निष्ठुरता, निर्दयता । जीव का घात न करना-कराना यह तो अहिंसा धर्म का सिर्फ एक अंग है। उसकी पूर्णता नहीं। . ३१. निर्भयता: हम अहिंसा धर्म को प्राप्त कर सकें, उसके पहले तो हमें दूसरे कई गुण प्राप्त करने चाहिए। उनमें से एक मुख्य गुण है निर्भयता। जबतक भय है तबतक अहिंसा धर्म की सिद्धि हो ही नहीं सकती। सर्प को हम मारने न दें, यह ठीक है। यह अहिंसा का एक अंग है। लेकिन हमारी अहिंसा पूर्ण तो तभी कहलावेगी कि जब हम साँप का नाम सुनते ही चौक नही पड़ें और साँप की हिंसा किए बिना साँप से रक्षा करने की हममें शक्ति हो। द्वेष करने को शक्ति होनेपर भी जो प्रेम करता है, वह अहिंसक है। अहिंसा अर्थात् वैर का त्याग । डरनेवाले की अहिंसा, अहिंसा नहीं । जहाँ वैर रखने की शक्ति ही नहीं, वहीं जो अप्रतिकार का बर्ताव होता है, वह अहिंसा नहीं है। ३२. खुशामद आहिंसा नहीं है। द्वष करने की, बैर रखने की शक्ति होनी चाहिये इन शब्दों का कोई अनर्थ न किया जाय । इनका अर्थ यह नहीं कि हम दूसरों के प्रति द्वेष रखने का प्रयत्न करें। हम दूसरों से भयभीत रहते हैं श निर्भय यह हमारा मन अच्छी तयह जानता है और यह भयवृत्ति)

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