________________
प्रकीर्णक
१३
अंगबाह्य
भंभा मुकदमहल कडंब झल्लरि हुडुक्क कंसाला । गणी। विज्जत्ति णाणं । तं च जोइसनिमित्तगतं णातं काहल तलिमा वंसो पणवो संखो य बारसमो।। पसत्थेसू इमे कज्जे करेति, तं जहा -पब्वावणा, सामा
(नन्दीचू पृ १) इयारोवणं, उवट्ठावणा, सुत्तस्स उद्देस-समुद्देसाऽणुण्णातो, भावणंदी णंदिसहोवयुत्तभावो। अहवा इमं पंचविह- गणारोवणं, दिसाणण्णा, खेत्तेसु य णिग्गम-पवेसा, णाणपरूवगं णंदि त्ति अज्झयणं । तं च सुतंसेण सव्वसुत- एमाइया कज्जा जेसु तिहि-करण-णक्खत्त-महत्त-जोगेसु अंतरभूतं ।
य जे जत्थ करणिज्जा ते जत्थऽज्झयणे वणिज्जति, नंदी के दो प्रकार हैं ---द्रव्य और भाव । नन्दी में तमझयणं गणिविज्जा।
(नन्दीच पृ ५८) अनुपयुक्त ज्ञाता द्रव्यनन्दी है। अथवा भंभा, मुकुन्द, आबाल-वृद्धसभी मुमुक्षु व्यक्तियों का गच्छ गण मर्दल, कडंबा (करटिका) झल्लरी, हुडुक्क, कंसाल, कहलाता है। गण का अधिपति गणी कहलाता है। काहल, तलिमा, वंश, शंख और पणव ---ये बारह प्रकार विद्या का अर्थ है ज्ञान । ज्योतिष-निमित्त-विद्या के के वाद्य तद्व्यतिरिक्त द्रव्यनन्दी हैं।
ज्ञाता गणी प्रशस्त काल आदि में ये कार्य करते हैं ... नन्दी शब्द में उपयुक्त ज्ञाता भावनन्दी है। अथवा प्रव्राजन (दीक्षा देना), सामायिक आरोपण, उपस्थापना मति, श्रुत आदि पांच ज्ञानों का प्रतिपादक ग्रंथ भाव श्रुत का उद्देश-समद्देश-अनुज्ञाकरण, गण-आरोपण नन्दी है । यह नन्दी पांच ज्ञान का प्रतिपादक होने के (शिष्य की गणिपद पर नियुक्ति), दिशानुज्ञा (यात्रा का कारण आगमश्रुत का अंश है, अतः सम्पूर्ण श्रुत में समा- निर्देश), नये क्षेत्र (ग्राम आदि) में प्रवेश-निर्गम आदि । हित है।
जिस प्रशस्त तिथि-करण-नक्षत्र-मूहर्त-योग में जो कार्य पौरुषीमण्डल
जहां करणीय हैं -- इन सबका जिस अध्ययन में प्रतिपादन पोरिसिप्रमाण उत्तरायणस्स अंते दक्षिणायणस्स य है, वह गणिविद्या अध्ययन है। आदीए एक्कं दिणं भवति । अतो परं अट्ठ एकसट्ठि- आतुर-प्रत्याख्यान भागा अंगुलस्स दक्खिणायणे वड्ढंति, उत्तरायणे य
आउरो गिलाणो, तं किरियातीतं णातुं गीतत्था हस्संति । एवं मंडले मंडले अण्णोण्णा पोरिसी जत्थ
पच्चक्खावेंति । दिणे दिणे दवह्रासं करेंता अंते य सव्वअज्झयणे दंसिज्जति तमज्झयणं पोरिसिमंडलं ।
दव्वदातणताए भत्ते वेरग्ग जणेता भत्ते नित्तण्हस्स भव(नन्दीचू पृ ५८)
चरिमपच्चक्खाणं कारेंति । एवं जत्थऽज्झयणे सवित्थर उत्तरायण के अंत में, दक्षिणायन के प्रारंभ में
वणिज्जइ तमज्झयणं आउर-पच्चक्खाणं ।
वणिज्जड : पौरुषीप्रमाण एक दिन होता है। इसके बाद इससे आगे
(नन्दीच पृ ५८) दक्षिणायन में अंगुल का इकसठवां भाग बढ़ता है,
जब आतुर/ग्लान साधक कार्य करने में अक्षम या उत्तरायण में घटता है। इस प्रकार हर मंडल में
उदासीन हो जाता है तो गीतार्थ साधु उसको आहार अन्योन्य/परस्पर पौरुषी का जिस अध्ययन में प्रतिपादन
का प्रत्याख्यान कराते हैं। प्रतिदिन खाद्यपदार्थों की है, वह पौरुषीमण्डल है।
संख्या सीमित कर अंत में आहार के प्रति विरक्ति के मण्डलप्रवेश
भाव जगाकर उसे अनशन करा देते हैं। इस विधि का चंदस्स सूरस्स य दाहिणुत्तरेसु मंडलेसु जहा मंड- जिस अध्ययन में विस्तृत वर्णन है, वह आतुर-प्रत्यालातो मंडले पवेसो तहा वणिज्जति जत्थऽज्झयणे ख्यानसूत्र है। तमज्झयणं मंडलपवेसो।
(नन्दीचू पृ५८) ८.प्रकीर्णक जिस अध्ययन में चन्द्र और सूर्य का दक्षिण और
चउरासीइं पइण्णगसहस्साई भगवओ अरहओ उसहउत्तर मंडलों में -एक मण्डल से दूसरे मण्डल में प्रवेश
सामिस्स आइतित्थयरस्स। तहा संखिज्जाई पइण्णगसहका वर्णन है, वह मण्डलप्रवेश सूत्र है।
स्साई मज्झिमगाणं जिणवराणं। चोइस पइण्णगसहगणिविद्या
स्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स। अहवा--- जस्स सबालवुड्ढाउलो गच्छो गणो, सो जस्स अत्थि सो जत्तिया सीसा उप्पत्तियाए, वेणइयाए, कम्मयाए, पारि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org