Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 09
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 453
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उ८० कोइ कहे छे दृहस्थावासे जिन पूजाया, इन्द्रादिक देवोए वांद्याने बळी गाया; तद्वत् गृहस्थ गुरुने वंदन पूजन करशु, गृहस्थ गुरुनुं शरण ग्रहीने पार उतरशं; करी कुयुक्ति बोलता उत्सूत्र मोटुं पाप छे, मत पोतानो स्थापवाने कुमतिनो आलाप छे. ॥१८॥ कल्पातीत ए वात जिनेश्वरनी छे जाणो, तीर्थकरनामोदयथी महिमा ए मानो: खमासमणथी वांद्या नहि इन्द्रादिकदेवे, यथायोग्यआचारविनयथी जिनने सेवे: गृहावासे जिनजी छे चोथा गुणस्थानक धणी, गृहस्थ जिनने वांदता नहि साधु वात सोहामणी. ॥११०॥ दीक्षा लेवे जिनजी त्यारे संयत वंदे, समजी साची वात पडो नहि कुमतिर्फदे; लोकांतिक देवो आवो बोले कर जोडी, वर्तावोने तीर्थ प्रभु घरबारने छोडी; आगार तजीअनगारता ग्रही प्रभुए सुखकरी, द्रव्यदीक्षा ग्रही प्रभुए क्षयोपशमभावे धरी. ॥११॥ गृहस्थावासे गुरु न होवे जुओ विचारी, तीर्थकर पण दीक्षा लेवे शिव सुखकारी; नयव्यवहारे चरण ग्रह्याथी शासन चाले, तीर्थ नहीं व्यवहार विना जाणो त्रिकाळे मानो जो व्यवहारने गुरु गृहस्थी फोक छे, संयतगुरुने सत्य समजे भव्य समजु लोक छे.॥११२।। For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486