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उ८०
कोइ कहे छे दृहस्थावासे जिन पूजाया, इन्द्रादिक देवोए वांद्याने बळी गाया; तद्वत् गृहस्थ गुरुने वंदन पूजन करशु, गृहस्थ गुरुनुं शरण ग्रहीने पार उतरशं; करी कुयुक्ति बोलता उत्सूत्र मोटुं पाप छे, मत पोतानो स्थापवाने कुमतिनो आलाप छे. ॥१८॥ कल्पातीत ए वात जिनेश्वरनी छे जाणो, तीर्थकरनामोदयथी महिमा ए मानो: खमासमणथी वांद्या नहि इन्द्रादिकदेवे, यथायोग्यआचारविनयथी जिनने सेवे: गृहावासे जिनजी छे चोथा गुणस्थानक धणी, गृहस्थ जिनने वांदता नहि साधु वात
सोहामणी. ॥११०॥ दीक्षा लेवे जिनजी त्यारे संयत वंदे, समजी साची वात पडो नहि कुमतिर्फदे; लोकांतिक देवो आवो बोले कर जोडी, वर्तावोने तीर्थ प्रभु घरबारने छोडी; आगार तजीअनगारता ग्रही प्रभुए सुखकरी, द्रव्यदीक्षा ग्रही प्रभुए क्षयोपशमभावे धरी. ॥११॥ गृहस्थावासे गुरु न होवे जुओ विचारी, तीर्थकर पण दीक्षा लेवे शिव सुखकारी; नयव्यवहारे चरण ग्रह्याथी शासन चाले, तीर्थ नहीं व्यवहार विना जाणो त्रिकाळे मानो जो व्यवहारने गुरु गृहस्थी फोक छे, संयतगुरुने सत्य समजे भव्य समजु लोक छे.॥११२।।
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