Book Title: Bhagvati Sutra Part 04
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 564
________________ मगवती मूत्र-स. १२ उ. १. पृथ्वी आत्मरूप है ? २११९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि-रत्नप्रभा पृथ्वी कथंचित् सद्रूप, कथंचित् असद्रूप और कथंचित् उभयरूप होने से अवक्तव्य कहते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी अपने स्वरूप से सद्रूप है, पर स्वरूप से असद्रूप है और उभयरूप की विवक्षा से सद्-असद्प होने से अबक्तव्य है । इसलिये पूर्वोक्त रूप से कहा गया है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी आत्मरूप ( सद्रूप ) है, .. इत्यादि प्रश्न । १३ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी का कथन किया है, उसी प्रकार शर्कराप्रभा पृथ्वी के विषय में यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिये। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्म देवलोक सद्रूप है, इत्यादि प्रश्न । १४ उत्तर-हे गौतम ! सौधर्म देवलोक कथंचित् सद्रूप है, कथंचित् असद्रूप है और कथंचित् सदसद्रूप होने से अवक्तव्य है। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ... उत्तर-हं गौतम ! स्व स्वरूप से सद्रूप है, पर स्वरूप से असद्रूप है और उभय की अपेक्षा अवक्तव्य है। इसलिये उपर्युक्त रूप से कहा है । इसी प्रकार यावत् अच्युत कल्प तक जानना चाहिये । ... १५ प्रश्न-हे भगवन् ! ग्रेवेयक विमान सद्रूप है इत्यादि प्रश्न । १५ उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के समान कहना चाहिये । इसी प्रकार अनुत्तर विमान तथा ईषत्प्रागभारा पृथ्वी तक कहना चाहिये। विवेचन-यहाँ ज्ञान से सम्यग्ज्ञान का और अज्ञान से मिथ्या ज्ञान का ग्रहण किया गया है । 'आत्मा का अर्थ है सद्रूप और अनात्मा का अर्थ है असद्रूप ।' किसी भी वस्तु को एक साथ सद्रूप और असद्रूप नहीं कहा जा सकता । उस दशा में वस्तु अवक्तव्य कहलाती है । रत्नप्रभा पृथ्वी अपने वर्णादि पर्यायों द्वारा सद्प है, पर-वस्तु की पर्यायों से असद्रूप है, स्व-पर पर्यायों से आत्मस्वरूप और अनात्मरूप अर्थात् सद् और असद्रूपइन दोनों द्वारा एक बार कहना अशक्य है। इसलिये यहाँ सद्रूप, असद्रूप और अवक्तव्यये तीन भंग होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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