Book Title: Bhadrakirti Suri ki Stutiyo ka Kavyashastriya Adhyayana
Author(s): Mrugendranath Jha
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf

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Page 3
________________ मृगेन्द्रनाथ झा Nirgrantha 'सूदितार:- भासितारः, ' 'यातारः स्रष्टारः वेदितार:' तीसरे में 'शुचिपदपदवी' 'माधुर्यधुर्याम्' 'पायं पायंव्यपायं,' आदि स्थलों के अवलोकन से स्पष्टतया कह सकते हैं कि भद्रकीर्तिसूरि के काव्य में शब्दानुप्रास की भरमार है । ३०२ अब अर्थालङ्कार के बारे में विचार करें। पहले रूपक अलङ्कार को देखें। जैसे सरस्वतीकल्प के दूसरे पद्य में 'वक्त्रमृगाङ्क,' 'त्वद्वक्त्ररङ्गागणे,' पाँचवे पद्य में 'हृत्पुण्डरीके,' 'पीयूषद्रववर्षिणि,' छठे में ‘गौरीसुधातरङ्गधवला,' 'हृत्पङ्कजे,' 'चातुर्यचिन्तामणि:' इत्यादि स्थलों में रूपकालङ्कार स्फुट है। इसी प्रकार शारदास्तोत्र के पहले पद्य में 'प्रणतभूमिरुहामृत' दूसरे में 'नयनाम्बुजम्' तीसरे में 'गणधरानन मण्डप, ' 'गुरुमुखाम्बुज,' आदि स्थानों पर रूपकालङ्कार स्फुट है। इसके अलावा उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, उपमा आदि अलङ्कारों के लक्षण का निर्वाह होता है । यथा "बप्पभट्टि कथानक" अंतर्गता 'मथुरा जिनस्तुति' के दूसरे श्लोक में दृष्टान्तालङ्कार है । यहाँ उपमान और उपमेय वाक्यों का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होने से दृष्टान्त अलंकार होता है । यहीं तीसरे में 'भवेदर्थान्तरन्यासोऽनुषक्तार्थान्तराभिधा १४ अर्थान्तरन्यास का लक्षण घटित होता है । यहीं नौवें श्लोक में 'विनोक्तिश्चेद्विना किञ्चित्प्रस्तुतं हीनमुच्यते ९५ लक्षण का निर्वाह होने से विनोक्ति अलङ्कार है । साधारण जिनस्तवन के प्रथम पद्य में 'विशेषोक्तिरनुत्पत्तिः कार्यस्य सति कारणे १६ इस लक्षण का पूर्ण रूप से निर्वाह होने पर 'विशेषोक्ति' है तथा 'विभावना विनापि स्यात्कारणं कार्यजन्म चेत् '१७ इस लक्षण के घटने से 'विभावना' अलंकार है क्योंकि द्वेषरूप कार्य का शत्रुता रूप कारण होता है जिसका यहाँ अभाव है ! यहाँ दया-प्रेम रूप कारण से द्वेषरूप कार्य दिखाया गया है अतः विभावना - विशेषोक्ति का संकर है। 1 अब काव्य की गुणोपस्थिति को देखें । यद्यपि गुणों की संख्या आचार्यों ने अलग-अलग मानी है, भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र ( ईस्वी दूसरी-तीसरी शताब्दी) में दश, सरस्वतीकण्ठाभरण (११वीं शताब्दी पूर्वार्द्ध) में भोज ने २४ गुणों का उल्लेख किया है किन्तु काव्यप्रकाश (ईस्वी ११वीं - १२वीं शताब्दी) आदि ग्रन्थों में माधुर्य, ओज, और प्रासाद, इन तीन को ही माना गया है। यहाँ तीन गुणों की उपस्थिति पर विचार करेंगे। क्योंकि भोज आदि आचार्यों को अभिमत सभी गुणों का इन तीन गुणों में ही समावेश होता है । साधारणजिनस्तवन के प्रथम स्तुति में माधुर्य गुण के सभी लक्षण मिलते हैं अर्थात् यहाँ प्रथम और पञ्चम वर्ण का संयोग ट ठ ड ढ की अनुपस्थिति तथा लघु स्कार हैं। ये सभी लक्षण माधुर्य गुण के पोषक हैं । इसी प्रकार नेमिजिनस्तुति के प्रथम श्लोक तथा शारदास्तोत्र के अनेक स्थानों में माधुर्य गुण का लक्षण घटित होता है। मुख्यतः शृङ्गार और शान्तरस का पोषक यह गुण है तथा प्रस्तुत स्तुतिमाला शान्तरस प्रधान है अतः इनकी उपस्थिति यहाँ स्वाभाविक है । इनकी काव्यकला पर विचार करें तो काव्यलक्षण के प्रसङ्ग में आचार्य मम्मट ने 'दोषहीन- गुणयुक्त तथा अलङ्कृत शब्द और अर्थ को काव्य कहा " है ।' अलङ्कार के मामले में इन्होंने थोड़ी छूट दी है कि अगर कहीं अलङ्कार स्फुट नहीं हो फिर भी उसकी काव्यत्व में कोई हानि नहीं होती है । प्रस्तुत काव्य भी उपर्युक्त तीनों गुणों से पूर्ण, साथ ही शान्तरस से ओतप्रोत है । पण्डितराज जगन्नाथ ने भी लोकोत्तर आह्लाद का अनुभव करानेवाला वाक्य, काव्य कहलाने का अधिकारी है, ऐसा कहा है। उन्होंने आचार्य मम्मट के शब्द और अर्थ दोनों में काव्यत्व मानने का तर्कपूर्ण खण्डन किया है । वस्तुतः लोकोत्तर आह्लादजनक वाक्य काव्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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