Book Title: Bhadrakirti Suri ki Stutiyo ka Kavyashastriya Adhyayana Author(s): Mrugendranath Jha Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 1
________________ भद्रकीर्ति (बप्पभट्टि) सूरि की स्तुतियों का काव्यशास्त्रीय अध्ययन मृगेन्द्रनाथ झा हृदय के अंदर अंकुरित भाव को भाषा के रूप में प्रकट करना 'काव्य' कहलाता है; अर्थात् भाषा भावों की वाहिका है । चित्त जब कहीं तल्लीन हो जाता है तब हृदय में भावनाएँ उठती हैं तथा उन भावनाओं को इष्टदेव या देवी के समक्ष प्रस्तुत करने वाली वाचा 'स्तुति' है । जिस प्रकार प्राणी अपने सांसारिक सुख-दुःख को माता-पिता को कहकर कष्ट से मुक्ति पाने का प्रयास करता ठीक उसी तरह भक्त इष्टदेव के समक्ष स्तुति के सहारे अपने मनोगत भावों को व्यक्त करता है । स्तोत्र की परम्परा वेद से लेकर महाभारत, रामायण, श्रीमद्भागवत तथा बाद के कवियों-सिद्धसेन, मानतुङ्गाचार्य, मयूर, पुष्पदन्त आदि में रही तथा आज भी है । ऐसे ही स्तुतिकारों में सिद्धहस्त कवि, किन्तु श्वेताम्बर जैन संप्रदाय के बाहर अप्रसिद्ध, श्री भद्रकीर्ति अपरनाम बप्पभट्टिसूरि का नाम आता है । इनके समयादि के सम्बन्ध में प्रा. मधुसूदन ढांकी द्वारा (८वीं शती) जो निर्णय लिया गया है, मैं उससे पूर्ण सहमत हूँ । यहाँ हमने कवि बप्पभट्टिसूरि की कुछ स्तुत्यात्मक काव्यकृतियों की सानुवाद समीक्षा की है। इन स्तोत्रों में श्रीसरस्वतीकल्प', सिद्धसारस्वतस्तवः ', साधारणजिनस्तव, श्रीनेमिजिनस्तुति: ५ एवं प्रबन्धचतुष्टय के अंतर्गत दिया गया 'जिनस्तोत्र" हैं । उसमें श्रीसरस्वतीकल्प एवं सिद्धसारस्वतस्तव में कहीं कहीं पाठान्तर हैं, जिसका यथास्थान निर्देश सहित समावेश किया गया है। (सरस्वतीकल्प के मुद्रित इन दोनों पाठों की अशुद्धियों को एल. डी. इन्स्टिट्यूट ऑफ इण्डोलाजी, अहमदाबाद की हस्तलिखित प्रति से सुधारकर मैंने यहाँ दर्शाया है ।) (बप्पभट्टिसूरि की सबसे बड़ी कृति 'स्तुति चतुर्विंशतिका' का भलीभाँति, सानुवाद एवं समालोचना समेत सम्पादन प्रा० हीरालाल रसिकदास कापड़िया कर चुके हैं *, इसलिये उस रचना पर यहाँ गौर नहीं किया गया है 1) आचार्य मम्मट ( ईस्वी. १०वीं - ११वीं शती) ने अपने काव्यप्रकाश में काव्य का प्रयोजन 'काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥' कहा है । यहाँ शिवेतर का क्षय भी काव्य का प्रयोजन बताया गया है । उदाहरणस्वरूप मयूर, जयदेव, पण्डितराज जगन्नाथ आदि कवियों का नाम दिया जा सकता है, जिनको स्तोत्रपाठ से अमङ्गलनाश का फल मिला था, ऐसी अनुश्रुति है । जैसे शरीर में हार - कुण्डल आदि संयोग सम्बन्ध से तथा शौर्यादि गुण आत्मा के संग समवाय-सम्बन्ध से उपस्थित रहते हैं, उसी तरह काव्य में अनुप्रास और उपमादि अलङ्कार संयोग सम्बन्ध से तथा आत्मभूत रस में माधुर्यादि गुण समवाय - सम्बन्ध से रहते हैं । यहाँ हमने उपर्युक्त कृतियों के अंतरंग में निहित रस, गुण तथा अलङ्कारों के बारे में यथासंभव प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है । जब सहृदयों के हृदय में उत्कट भक्ति या परम प्रीति रूप सात्त्विक भाव का उद्रेक होता है तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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