Book Title: Bhadrakirti Suri ki Stutiyo ka Kavyashastriya Adhyayana
Author(s): Mrugendranath Jha
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf

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Page 12
________________ Vol. III 1997-2002 नहीं है | ) ||५|| भद्रकीर्ति...... एवंविधे शास्तरि वीतदोषे महाकृपालौ परमार्थवैद्ये । मध्यस्थभावोऽपि हि शोच्य एव प्रद्वेषदग्धेषु क एष वादः ? ॥ ६ ॥ आप सफल शासक, सर्वदोष मुक्त, दयावान्, मोक्षवेत्ता, रागद्वेष आदि को जलानेवाले हैं; यह तो मध्यस्थभावी भी स्वीकारते हैं । इसमें विवाद कैसा ? न तानि चक्षूंषि न यैर्निरीक्ष्यसे न तानि चेतांसि न यैर्विचिन्त्यसे । न ता गिरो या न वदन्ति ते गुणान्न ते गुणा ये न भवन्तमाश्रिताः ॥७॥ Jain Education International वह आँख, आँख नहीं जो तुम को नहीं देखे; वह हृदय, हृदय नहीं जो तुम्हारा चिन्तन न करे; वह वाणी, वाणी नहीं जो तुम्हारा गुणगान न करे तथा वह गुण, गुण नहीं है जो तुम्हारे आश्रित नहीं हो ||७|| तच्चक्षुर्दृश्यसे येन तन्मनो येन चिन्त्यसे । सज्जनानन्दजननी सा वाणी स्तूयसे यया ॥८॥ वस्तुतः आँख वही है जिसके द्वारा 'तुम' देखे जाते हो; मन वही है जिसमें तुम्हारी चिन्ता होती है; सज्जनों के आनन्द का कारण वही वाणी है जिससे तुम्हारी स्तुति की जाती है ॥८॥ हे जिनेन्द्र ! तुम्हारे गुणों का अपरिमित गुण है, तुम्हें नमस्कार हो ३११ (द्रुतविलम्बित ) न तव यान्ति जिनेन्द्र ! गुणा मितिम् मम तु शक्तिरूपैति परिक्षयम् । निगदितैर्बहुभिः किमिहापरै परिमाणगुणोऽसि नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥ अन्त नहीं हैं; बहुत कहने से तो मेरी शक्ति ही क्षीण होती है; तुझमें ||९|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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