Book Title: Bhadrakirti Suri ki Stutiyo ka Kavyashastriya Adhyayana Author(s): Mrugendranath Jha Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 2
________________ Vol. III - 1997-2002 भद्रकीर्ति.... स्फुरण होता है और यही स्फुरण भाषा को जन्म देता है । स्तोत्र काव्य का स्थायी भाव देव-गुरु या अन्य वन्द्यविषयक रति है। पहले हम रस की चर्चा करेंगे । आचार्य मम्मट ने विभाव-अनुभाव और सञ्चारिभाव से अभिव्यक्त स्थायी भाव रस है, ऐसा कहा है । आचार्य विश्वनाथ (१३वीं १४वीं शती)ने भी इसी बात को दुहराया है। यहाँ प्रस्तुत स्तोत्रों में शान्तरस है। यद्यपि कुछ विद्वान् राग-द्वेष आदि का निर्मूलन अशक्य मानते हुए शान्तरस का खण्डन करते हैं तो कुछ लोग वीर-बीभत्सादि में ही इसका अन्तर्भाव मानते हैं । मैंने शान्तरस की सत्ता स्वीकार करते हुए इन स्तोत्रों में शान्तरस के लक्षणों को घटाने का प्रयास किया है। यथा-क्षुभ्यत्क्षीर समुद्र-सरस्वती.......दुग्धाम्बुधेः ॥४॥ इस पद्य में सरस्वती का स्वरूपचिन्तन आदि इसके आलम्बन, एकान्तता-उद्दीपन, रोमाञ्चादि अनुभाव तथा हर्षादि व्यभिचारी से शान्तरस का अनुभव होता है। कहीं-कहीं तो भावध्वनि भी देखने को मिलती है जैसे 'नमस्तुभ्यं मनोमल्ल.'११ यहाँ जिनेश्वर-नमस्कार तथा व्यभिचारि भावों की प्रतीति व्यञ्जना से होती है। तथा - 'धन्यास्ते १२ इस स्तुति में आगम का ज्ञान तथा स्फार दृष्टि से परिणत बुद्धि का ज्ञान भी व्यञ्जना से होता है, अतः भावध्वनि है। वाणी की विभूषारूप अलङ्कार दो तरह के होते हैं : शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार । जहाँ दोनों की उपस्थिति एक ही स्थान में हो वहाँ उभयालङ्कार माना जाता है । भद्रकीर्तिसूरि के स्तोत्र में उपर्युक्त तीनों की उपस्थिति है । विशिष्ट कवि कभी अलङ्कारों को ध्यान में रखकर रचना नहीं करते बल्कि उनकी वाणी ही अनायास अलङ्कृत होती है । जब कोई प्रतिभाशाली कवि अपने आराध्य की अलौकिक महिमा का गुणानुवाद करता है तो उनकी विवक्षा में जो बहिः प्रकाश रूप भक्ति होती है वही वेग के कारण विविध रूपों में अभिव्यक्त होकर अलङ्कारों के स्वरूप को प्राप्त करती है। पात्र के भर जाने पर दिया जाने वाला पानी जिस प्रकार अपने आप इधर-उधर बह जाता है उसी प्रकार काव्य से अलङ्कार भी चारों तरफ बह जाता है। श्री बप्पभट्टिसूरि भी अपने आराध्य की भक्ति में इतने लीन थे कि उनके मुख से निकली हुई वाणी उनके गुणगान होने के कारण परम आस्वाद्य हो गयी । इनकी कृतियों में भी उसी प्रकार अलङ्कार चतुर्दिक प्रकाश बिखेरता है । यहाँ दोनों या तीनों तरह के अलङ्कार मिलते हैं । 'दुर्गा-पवर्ग-सन्मार्ग-स्वर्ग-संसर्ग'१२ - में रकार एवं गकार की आवृत्ति बार-बार हुई है । अतः स्फुटनुप्रास है । साथ ही 'तारिणे-कारिणे' में पदान्त यमक है । शारदास्तोत्र के प्रथम श्लोक में 'सारिणी-धारिणी' एवं द्वितीय में 'दानव-मानव' में नकार वकार की आवृत्ति, चौथे में 'समाननाम्-माननाम्' तथा 'सरस्वतीम्' में यमक पुनः पाँचवें श्लोक में 'लाञ्छिते-वाञ्छिते,' 'लोचने-मोचने,' ११वें में 'कविता-वितानसविता' 'साधारणजिनस्तवनम्' के तीसरे पद्य में 'पराङ्मुखाः ।' नेमिजिनस्तुति के भी प्रथम श्लोक में 'सजल जलधर,' 'पायाद-पाया,' दूसरे पद्य में 'मदमदन' एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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