Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 11
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा अन्य-दार्शनिक-मतों की गहन तार्किक-समीक्षा की गई है। इस प्रकार, यह ग्रन्थ जैन-न्याय का ग्रन्थ होते हुए भी भारतीय-दर्शन का भी एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जा सकता है, क्योंकि इस ग्रन्थ में पूर्वपक्ष के रूप में भारतीय दर्शन की सभी शाखाओं की प्रमुख मान्यताओं को प्रस्तुत कर उनकी तार्किक-समीक्षा करने का प्रयास किया गया है। इस प्रकार, भारतीय-दर्शन की सभी प्रमुख शाखाओं यथा चार्वाक, बौद्ध, नैयायिक-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा और वेदांत की समीक्षा इस ग्रंथ में उपलब्ध हो जाती है। यद्यपि योग और वेदांत के मतों की स्पष्ट समीक्षा का अभाव है, किंतु प्रकारान्तर से उनकी समीक्षा भी उपलब्ध हो जाती है, क्योंकि इससे वेदांत को मीमांसा में और योग को सांख्य में समाहित कर लिया गया है। यही कारण है कि मैंने अपने शोधकार्य के लिए 'रत्नाकरावतारिका में बौद्ध-दर्शन के विविध मंतव्यों का समीक्षात्मक अध्ययन' इस विषय का निर्धारण किया। जैन-दर्शन को ऐतिहासिक-दृष्टि से तीन भागों में विभाजित किया जाता है - 1. आगम-युग 2. अनेकान्तस्थापन-युग और 3. जैनन्याय-युग। जैन-आगमों में भी बीजरूप से जैन-न्याय की कुछ अवधारणाएं उपलब्ध होती हैं। विशेष रूप से, समवायांगसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र और नंदी-सूत्र में बीजरूप से ये अवधारणाएं प्रस्तुत की गई हैं, किंतु उनमें मुख्यतया जो विवेचन उपलब्ध हैं, उनका संबंध नय-निक्षेप, पंचज्ञान और प्रमाण से संबंधित है, साथ ही यह ज्ञातव्य है कि आगमों में इन अवधारणाओं का मात्र निर्देश ही उपलब्ध होता है, इनके संबंध में कोई विस्तृत विवेचन या अन्य-मतों की समीक्षा हमें उपलब्ध नहीं होती। जहाँ तक अन्य–दार्शनिक-मतों की समीक्षा का प्रश्न है, वह जैन-न्याय के ग्रन्थों का प्रमुख विषय है। आगमों में सूत्रकृतांग एवं राजप्रष्नीय में बौद्धादि अन्य-मतों का प्रस्तुतिकरण है और उनकी समीक्षा भी है, किंतु वह इतनी प्रौढ़ नहीं है, मात्र सांकेतिक-निर्देश ही है। जहाँ तक अनेकान्तस्थापन-युग का प्रश्न है, इसका प्रारंभ सिद्धसेन के सन्मतितर्क नामक ग्रन्थ से होता है। इस युग का अन्य प्रौढ़-ग्रन्थ मल्लवादि का नयचक्र है। इस ग्रन्थ में पूर्वपक्ष के रूप में बौद्धादि विभिन्न दर्शनों की मूलभूत अवधारणा को रखा गया है और उनकी विरोधी अवधारणाओं के द्वारा ही उनकी समीक्षा प्रस्तुत की गई है। इस प्रकार, बौद्धादि अन्य भारतीय-दर्शनों की एकान्तिक-मान्यताओं की समीक्षा का यह प्रथम प्रौढ़-ग्रन्थ है, फिर भी जैन-न्याय के क्षेत्र में जिन ग्रन्थों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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