Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 19
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा ब. नव्यन्याय-युग। इस प्रकार, उनकी दृष्टि में जैन-दर्शन के विकास का क्रम निम्न चार युगों में सम्पन्न हुआ है आगम-युग - आगमयुग वह काल है, जहाँ हम जैन-दर्शन की मूलभूत अवधारणाओं के बीज ही देखते हैं। आगमयुग को जैन-दर्शन का प्रारंभिक युग भी कहा जा सकता है। उस युग में दर्शन की क्या स्थिति थी, उसका विस्तृत विवेचन पं. दलसुखभाई मालवणिया ने अपने ग्रन्थ "आगमयुग का जैन-दर्शन" में विस्तार से किया है। आगमयुग में या प्रारंभिक दर्शनयुग में मुख्यतः तत्त्व-मीमांसा और आचार-मीमांसा को ही अधिक महत्व दिया गया है। अनेकान्त के बीज चाहे आगम ग्रन्थों में उपस्थित हों, किन्तु उस युग में अनेकान्तवाद की स्थापना और उसके आधार पर विभिन्न दर्शनों के बीच समन्वय का प्रयत्न नहीं देखा जाता है। यह प्रयत्न मूलतः दूसरे अनेकान्तस्थापनयुग से ही प्रारंभ होता है। आगमयुग की कालावधि ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी से लेकर ईसा की चौथी शताब्दी तक एक व्यापक कालखण्ड को अपने में समाहित करती है। __अनेकान्तस्थापन युग - अनेकान्तव्यवस्था-युग का प्रारंभ सिद्धसेन के सन्मतितर्क और मल्लवादि के द्वादशारनयचक्र से हो जाता है। लगभग इसी काल में दिगम्बर-परंपरा में आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा की रचना कर अनेकान्त के आधार पर दार्शनिक-मतवादों की समीक्षा कर उनके समन्वय के सूत्र भी खोजने के प्रयत्न किए हैं। अनेकान्त-व्यवस्थायुग की मुख्य विशेषता यह रही है कि उस युग में अन्य-दार्शनिक एकान्त मान्यताओं में दोषों का उदभवन कर एक ओर उनकी समीक्षा की गई, वहीं दूसरी ओर अनेकान्त-दृष्टि से उनमें निहित सत्यता को उजागर करने का प्रयत्न भी किया गया है। इस युग में दार्शनिक-समीक्षाओं का आधार भी अनेकान्त-दष्टि को ही बनाया गया है, अतः, जहाँ एक ओर एकान्तवादों की समीक्षा है, वहीं दूसरी ओर उनमें निहित सत्य का उद्घाटन भी किया गया है। अनेकान्तव्यवस्था-युग का प्रारंभ ईसा की चौथी शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक माना जा सकता है। आचार्य हरिभद्र के अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तप्रवेश, शास्त्रवार्तासमुच्चय, स्याद्वादकुचोद्यपरिहार आदि इस युग के अन्तिम चरण के प्रमुख ग्रन्थ माने जा सकते हैं। हरिभद्र के काल तक यद्यपि प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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