Book Title: Atmprabodh
Author(s): Jinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 12
________________ (२) शास्त्रोनी आ वाणी बोली जवानी के सांनळी जवानी नयी पण तेने क्रियामां-वर्चनमा मुकवी जोइए. ए वर्तनमा मुकवाने माटेज आहेत आगम उपरथी प्राचीन विधानोए अनेक लेख लखेत्रा . प्रत्येक लेखनी रचना जिन्न निन्न लागे छे, पण तेमनो पवित्र उद्देश एकज होय छे. ते पवित्र नदेशथी बखाएला ग्रंयोनी अंदर केटबुं वधुं गौरव रहेढुं जे ? तेनो चितार सहृदय विधानोज आपी शके तेम जे. . सर्व दर्शन शिरोमणि जैनदर्शनमा विश्वोपकार। महात्माअोए जव्यास्माओना हितनी खातर अनेक ग्रंयो बखेस्रा ने. अने तेथीज जारतवर्ष उपर वसती आर्य प्रजामां आईत धर्मनी ज्ञान समृधि सर्वोत्कृष्ट गणाय . जोके तेनां अनेक कारणो छे, परंतु मुख्य कारण तेमना ग्रंथोमां वर्णवेलु उच्च प्रकारनुं तत्त्वज्ञान केवन शुष्क नथी, पण ते साये ते क्रिया, आचार अने सतनना बोधरुप माधुर्यथी जरपूर जे. तेनी अंदर हृदयना जच्च नावने जाग्रत करनारी नावनाओ एवी रीते प्ररूपेली छे के जेमनाथी संसारी जीवो पोताना दोषोने दूर करवा अने आत्माना गुणोने संपादन करवा समर्थ थइ शके .. आ आत्मप्रवोध ग्रंथ आहत धर्मनी ज्ञानसमृद्धिना वैनवना परिपूर्ण विनास रुप . उपर कहब निश्चयवळ अथवा मनोवळ प्राप्त करवानी सामग्री आ ग्रंथमां भरपूर गोठवेली . आत्मा ए पदार्थनी अंदर जे सामर्थ्य, वीर्य अने सत्ता रहेली , तेने ओळखाववाने माटे जे जे साधनो जोइए, ते साधनो आ ग्रंथमां युक्ति अने प्रमाण साथे प्रतिपादित करेला . मनुष्योमा कमजनित जे जे दोषो रहेना , तेमने टाळीने तेमना आत्मामा रहेवा उच्च बक्षणो खीलववामाटे सर्वोत्तम साधन सम्यक्त्वज . ते विषे आ ग्रंथमां सविस्तर विवेचन करवामां आवेदूं जे, ते उपरथी आत्मा केवी रीते प्रबोधने प्राप्त करे छे, अने प्रबोध प्राप्त करवा माटे आत्माए शुं करवू जोइए ? इत्यादि जच्च प्रकारो ग्रंयकारे एवी शैली अने क्रमथी वर्णव्या डे के, जेथी या ग्रंथर्नु आत्मप्रबोध ए नाम संपूर्ण सार्थकताने धारण करे . वळी प्रबोधनो अर्थ जागृति थायजे, अनाथी आत्मानी प्रबोध-जागृति थाय एवा विचारोनो जमां संग्रह छे, एवो आत्मप्रवोध ग्रंथ तेना नामनी संपूर्ण कृतार्थता पण संपादन करे. ज्या प्रकाश त्यां प्रबोध होयजे. अंधकारमा प्रबोध होइ शकतो नयी तेथी आ ग्रंथना प्रकरणने प्रकाश नाम आपेढुं . आ ग्रंथमां प्रकरण रुपे चार Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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