Book Title: Ashtsahastri Part 1 Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh SansthanPage 10
________________ ( ε ) मीमांसक कहता है कि प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणों से सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है अतः सर्वज्ञ नहीं है इस भरत क्षेत्र में और इस पंचम काल में सर्वज्ञ नहीं है तो न सही किंतु विदेह क्षेत्रों " यहां जैनमत का आश्रय लेकर कोई शंका करता है इन्द्रियां अपने-अपने विषय को ही ग्रहण करती हैं पर के विषय को नहीं, अत: " अतीन्द्रिय ज्ञान भी असंभव ही है अब मीमांसकाभिमत सर्वज्ञ के अभाव के विषय में जैनाचार्य मीमांसा करते हैं। सर्वज्ञ-सिद्धि मीमांसक कहता है कि अस्तित्व ग्रहण करने वाले पांचों ही प्रमाणों से सर्वज्ञ सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाला प्रमाण विद्यमान सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाले और बाधित करने वाले दोनों ही प्रमाण पाये जाते हैं अत: ''' मीमांसक आत्मा को ज्ञान स्वभाव नहीं मानता है उसका उत्तर यदि आत्मा ज्ञान स्वभाव वाली है तब संसारावस्था में उसके अज्ञानादि भाव कैसे दिखते हैं ? मोहरहित भी आत्मा तीन विप्रकृष्ट पदार्थों को नहीं जान सकता है सर्वज्ञ भगवान् का ज्ञान इन्द्रियों की सहायता से रहित अतीन्द्रिय है सर्वज्ञ के अतीन्द्रिय ज्ञान की सिद्धि का साराँश पूर्वोक्त तीन कारिकाओं में कथित तीन हेतुओं से भगवान् महान् नहीं हैं किंतु .. बौद्ध दोषों को स्वहेतुक एवं साँख्य दोषों को परहेतुक ही मानता है किन्तु किसी का कहना है कि दोष या आवरण दोनों 'से एक का ही अभाव कहना चाहिये किंतु अनादिकाल से दोष आवरण निमित्तक है एवं आवरण दोष निमित्तक है दोनों बौद्ध दोषों को ही संसार का कारण मानता है आवरण को नहीं, किंतु दोष आवरण की हानि प्रध्वंसाभाव रूप है अत्यंताभाव रूप नहीं है कार बुद्धि की तरतमता देखकर "अतिशायन हेतु " को व्यभिचारी कहता है किंतु जो पदार्थ दिखते नहीं हैं उनका अभाव कैसे होगा ? इस पर जैनाचार्य का कहना है कि नाचार्य भस्म लोष्ठ आदि पृथ्वी को निर्जीव सिद्ध करते हैं। कर्मद्रव्य का प्रध्वंसाभाव रूप अभाव मानने पर दोषारोपण एवं स्याद्वादी द्वारा उन दोषों का निराकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only पृष्ठ नं० २५१ २५५ २५६ २५८ २५८ २६० २६२ २७० २७१ २७४ २७५ २७७ २७६ २८३ २८५ २८८ २८८ २६० २६१ २६३ २६५ २६६ २८७ ३०२ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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