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॥ पउमचरियं ॥
प्रास्ताविक :
पउमचरियं की रचना आचार्य विमलसूरि ने ईस्वीसन् की तृतीय-चतुर्थ शताब्दी में की थी। उसकी मूल भाषा प्राकृत है।
इस ग्रन्थ में पद्म (राम का अपर नाम) के चरित्र का सुन्दर वर्णन किया गया है। जिससे ग्रन्थ का नाम सार्थक सिद्ध होता है । इसमें सगरपुत्रों एवं रावण की अष्टापद यात्रा का विस्तृत वर्णन किया गया है । जिसे यहाँ संपादित करके प्रस्तुत किया गया है ।
पउमचरियं के राक्षसवंश नामक अधिकार के पांचवे उद्देश में सगरपुत्रों की अष्टापदयात्रा का संदर्भ
सगरपुत्राणामष्टापदयात्रा नागेन्द्रेण दहनं च : सगरो वि चक्कवट्टी, चउसट्ठिसहस्सजुवइकयविहवो। भुञ्जइ एगच्छत्तं, सयलसमत्थं इमं भरहं ॥१६८।। अमरिन्दरुवसरिसा, सट्ठिसहस्सा सुयाण उप्पन्ना। अट्ठावयम्मि सेले, वन्दणहेउं समणुपत्ता ॥१६९।। वन्दणविहाणपूयं, कमेण काऊण सिद्धपडिमाणं। अह ते कुमारसीहा, चेइयभवणे पसंसन्ति ।।१७०।। मन्तीहि ताण सिटुं, एयाई कारियाई भरहेणं । तुम्हेत्थ रक्खणत्थं, किंचि उवायं लहं कुणह ॥१७१।। दण्डरयणेण घायं, दाउं गङ्गनईएँ मज्झम्मि। सयरसुएण उ ताहे, परिखेवो पव्वयस्स कओ ॥१७२॥ दळूण य तं विवरं, नागिन्दो कोहजलणपज्जलिओ। सव्वे वि सयरपुत्ते, तक्खणमेत्तं डहइ रुट्ठो ॥१७३।।
दळू दोण्णि जणे, ताणं मज्झट्ठिए कुमाराणं । काऊणं अणुकम्पं जिणवरधम्मप्पभावेणं ॥१७४ ।। दळूण मरणमेयं, सयरसुयाणं समत्तखन्धारो । भइरहि-भीमेण सम, साएयपुरि समणुपत्तो ॥१७५।।
सगरपुत्रों की अष्टापद यात्रा और नागेन्द्र द्वारा दहन :
चौसठ हज़ार युवतियों की समृद्धिवाला सगर चक्रवर्ती भी पूर्ण प्रभुत्वयुक्त इस समग्र भरतक्षेत्र का उपभोग करने लगा। (१६८) उसके देवेन्द्र के समान रूपवाले साठ हज़ार पुत्र थे। वे एकबार अष्टापद पर्वतके पर वन्दन के हेतु आये। (१६९) क्रमशः सिद्ध प्रतिमाओं के दर्शन एवं पूजाविधि करके कुमारों में सिंह जैसे उन्होंने चैत्यभवन में प्रवेश किया।(१७०) मंत्रियों ने उनसे कहा कि ये चैत्यभवन भरत ने बनवाये हैं। इनकी रक्षा के लिये तुम कोई उपाय जल्दी ही करो।(१७१) इस पर गंगा नदी के बीच दण्डरत्न से प्रहार करके सगरपुत्रों ने पर्वत के चारों ओर परिखा तैयार की। (१७२) इस छिद्र को देखकर रुष्ट नागेन्द्र ने क्रोधरूपी अग्नि से प्रज्वलित होकर सभी सगरपुत्रों को तत्क्षण भस्म कर डाला ।(१७३) जिनवर के धर्म के प्रभाव से अनुकम्पा करके उन कुमारों में से दो कुमारों को भस्मसात् न किया।(१७४) सगर के पुत्रों की ऐसी मृत्यु देखकर भगीरथ एवं भीम के साथ समस्त सैन्य अयोध्या लौट आया ।(१७५)
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Paumachariyam