Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 001 to 087
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 56
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth भगवान् की ऊपरी दक्षिण दाढा को शक्र ने, वाम दाढा को ईशानेन्द्र ने, नीचे की दक्षिण दाढा को चमर ने तथा वाम दाढा को बलि ने ग्रहण किया। शेष देवों ने भगवान् के शेष अंग ग्रहण किए। इसके पश्चात् भवनपति और वैमानिक देवों ने इन्द्र के आदेश से तीन चैत्य-स्तूपों का निर्माण किया। चारों प्रकार के देव निकायों ने भगवान् का परिनिर्वाण महोत्सव मनाया। फिर देवों ने नंदीश्वरद्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव मनाया । महोत्सव सम्पन्न करके सब अपनी-अपनी सुधर्मा-सभा के चैत्यस्तम्भ के पास गए। वहाँ वज्रमय गोल डिब्बे में भगवान् की दाढा को रख दिया। नरेश्वरों ने भगवान् की भस्म ग्रहण की। सामान्य लोगों ने भस्म के डोंगर बनाए। तब से भस्म के डोंगर बनाने की परम्परा चलने लगी। लोगों ने उस भस्म के पुंड्र भी बनाए। श्रावक लोगों ने देवताओं से भगवान् की दाढा आदि की याचना की। याचकों की अत्यधिक संख्या से अभिद्रुत होकर देवों ने कहा- 'अहो याचक ! अहो याचक !' तब से याचक परम्परा का प्रारम्भ हुआ। उन्होंने वहाँ से अग्नि ग्रहण करके उसे अपने घर में स्थापित कर लिया इसलिए वे आहिताग्नि कहलाने लगे। उस अग्नि को भगवान् के पुत्र, इक्ष्वाकुवंशी अनगारों तथा शेष अनगारों के पुत्र भी ले गए। भरत ने वर्धकिरत्न से चैत्यगृह का निर्माण करवाया। उसने एक योजन लम्बा-चौड़ा तथा तीन गव्यूत ऊँचा सिंहनिषद्या के आकार में आयातन बनवाया। कोई आक्रमण न कर दे इसिलिए लोहमय यंत्रपुरुषों को द्वारपाल के रूप में नियुक्त किया। दंडरत्न से अष्टापद की खुदाई करवाकर एक-एक योजन पर आठआठ सीढ़िया बनवा दीं । सगर के पुत्रों ने अपनी कीर्ति एवं वंश के लिए दंडरत्न से गंगा का अवतरण करवाया। * भरत को कैवल्य-प्राप्ति : भगवान् के निर्वाण के पश्चात् भरत अयोध्या आ गये। कुछ समय पश्चात् वह शोक से मुक्त हो गया और पाँच लाख पूर्व तक भोग भोगता रहा। एक बार वह सभी अलंकारों से विभूषित होकर अपने आदर्शगृह में गया। वहाँ एक कांच में सर्वांग पुरुष का प्रतिबिम्ब दीखता था। वह स्वयं का प्रतिबिम्ब देख रहा था। इतने में ही उसकी अंगूठी नीचे गिर पड़ी। उसको ज्ञात नहीं हुआ। वह अपने पूरे शरीर का निरीक्षण कर रहा था। इतने में ही उसकी दृष्टि अपनी अंगुलि पर पड़ी। उसे वह असुन्दर लगी। तब उसने अपना कंकण भी निकाल दिया। इस प्रकार वह एक-एक कर सारे आभूषण निकालता गया। सारा शरीर आभूषण रहित हो गया। उसे पद्मविकल पद्मसरोवर की भाँति अपना शरीर अशोभायमान लगा। उसके मन में संवेग उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगा- 'आगन्तुक पदार्थों से विभूषित मेरा शरीर सुन्दर लगता था पर वह स्वाभाविक रूप से सुंदर नहीं है।' इस प्रकार चिन्तन करते हुए अपूर्वकरणध्यान में उपस्थित भरत को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। देवराज शक्र ने आकर कहा- 'आप द्रव्यलिंग धारण करें, जिससे हम आपका निष्क्रमण-महोत्सव कर सकें।' तब भरत ने पंचमुष्टि लुंचन किया। देवताओं ने रजोहरण, पात्र आदि उपकरण प्रस्तुत किए । महाराज भरत दस हजार राजाओं के साथ प्रवजित हो गए। शेष नौ चक्रवर्ती हजार-हजार राजाओं से प्रव्रजित हुए। शक्र ने भरत को वन्दना की। भरत एक लाख पूर्व तक केवली पर्याय का पालन कर मासिक संलेखना में श्रवण नक्षत्र में अष्टापद पर्वत पर परिनिर्वृत हो गये। भरत के बाद इन्द्र ने आदित्ययश का अभिषेक किया। इस प्रकार एक के बाद एक आठ पुरुषयुग अभिषिक्त हुए। उसके बाद के राजा उस मुकुट को धारण करने में समर्थ नहीं हुए। RO १. चैत्यगृह के विस्तृत वर्णन हेतु देखें आवचू. १ पृ. २२४-२२७ । २. आवनि. २३०, आवचू. २ पृ. २२१-२२७, हाटी. १ पृ. ११३, मटी. प. २४५-२४६ । ३. आवनि. २५७, आवचू. १ पृ. २२७-२२८, हाटी. १ पृ. ११३, ११४, मटी. प. २४६ । Aavashyak Niryukti - 16

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