Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 001 to 087
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 60
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth. एव मुणिऊण तेणं, चलणद्वेण पीलियं सिहरं । जह दहमुहो निविट्ठो, गुरुभरभारोणयसरीरो ॥७६ ।। विहडन्तमउडमोत्तिय-नमियसिरो गाढसिढिलसव्वङ्गो । पगलन्ततक्खणुप्पन्नसेयसंघायजलनिवहो ॥७७।। ववगयजीयासेणं, रओ कओ जेण तत्थ अइघोरो । तेणं चिय जियलोए, विक्खाओ रावणो नामं ॥७८॥ सोऊण मुहरवं तं, मूढा सन्नज्झिऊण रणसूरा । किं किं? ति उल्लवन्ता, भमन्ति पासेसु चलवेगा ॥७९॥ मुणितवगुणेण सहसा, दुन्दुहिसदो नहे पवित्थरिओ । पडिया य कुसुमवुट्ठी, सुरमुक्का गयणमग्गाओ ॥८॥ जाहे अणायरेणं, सिढिलो अङ्गुठ्ठओ कओ सिग्धं । मोत्तूण पव्वयवरं, विणिग्गओ दहमुहो ताहे ॥८१ ।। सिग्धं गओ पणामं, दसाणणो मुणिवरं खमावेउं । थोऊण समाढत्तो, तव-नियमबलं पसंसन्तो ॥८२।। मोत्तूण जिणवरिन्दं, अन्नस्स न पणमिओ तुमं जं से । तस्सेयं बलमउलं, दिलृ चिय पायडं अम्हे ||८३।। रूवेण य सीलेण य, बलमाहप्पेण धीरपुरिस ! तुमे । सरिसो न होइ अन्नो, सयले वि य माणुसे लोए ॥८४॥ अवकरिस्स मह तुमे, दत्तं चिय जीवियं न संदेहो । तह वियखलो अलज्जो, विसयविरागं न गच्छामि ॥८५।। धन्ना ते सप्पुरिसा, जे तरुणत्ते गया विरागत्तं । मोत्तूण सन्तविहवं, निस्सङ्गा चेव पव्वइया ॥८६॥ एवं थोऊण मुणी, दसाणणो जिणहरं समल्लीणो । निययजुवईहि सहिओ, रएइ पूयं अइमहन्तं ।।८७।। तो चन्दहासअसिणा, उक्कत्तेऊण निययबाहं सो। पहारुमयतन्तिनिवहं, वाएइ सविब्भमं वीणं ॥८८॥ थोऊण समाढत्तो, पुण्णपवित्तक्खरेहि जिणयन्दं । सत्तसरसंपउत्तं, गीयं च निवेसियं विहिणा ।।८९ ।। से शिखर को ऐसा दबाया कि अत्यन्त भार के कारण झुके हुए शरीरवाला वह दशमुख बैठ गया। (७५७६) उसके मुकुट के मोती विखर गये, सिर झुक गया, सब अंग अत्यन्त ढीले पड़ गये और उस समय उत्पन्न पसीने के समूह से पानी का प्रवाह बह चला। (७७) जीवन की आशा नष्ट होने से उसने उस समय जो अति भयंकर आवाज की उससे वह जीवलोक में रावण के नाम से विख्यात हुआ। (७८) मुँह में से निकली हुई उस आवाज़ को सुनकर मूढ सुभट कवच धारण करके 'क्या है ? क्या है ? ऐसा बोलते हुए तेज़ी के साथ अगल-बगल घूमने लगे । (७९) उस समय अचानक मुनि के तप के प्रभाव से आकाश में दुन्दुभि का शब्द फैला गया और आकाशमार्ग में से देवताओं द्वारा मुक्त पुष्पों की वृष्टि होने लगी। (८०) जब अनादर के साथ वाली ने अपना अँगूठा अविलम्ब शिथिल किया तब पर्वत का त्याग करके दशमुख बाहर निकला। (८१) शीघ्र ही आकर रावण ने प्रणाम किया और मुनिवर से क्षमायाचना करके तप एवं नियम के बल की प्रशंसा करता हुआ वह उन की स्तुति करने लगा कि जिनवरेन्द्र को छोड़कर दूसरे को प्रणाम न करने की जो तुम्हारी प्रतिज्ञा है उसकी वजह से यह अतुल बल प्राप्त हुआ है, ऐसा मैं समझता हूँ। (८२-८३) हे धीरपुरुष ! रूप, शील एवं बल की महत्ता में तुम्हारे सदृश कोई भी पुरुष इस मनुष्यलोक में नहीं है। (८४) अपकार करनेवाले मुझको तुमने जीवनदान दिया है, इसमें सन्देह नहीं है, फिर भी धृष्ट और निर्लज्ज मैं विषयों में रागभाव का परित्याग नहीं करता। (८५) वे सत्पुरुष धन्य हैं जो तरुणावस्था में ही विरक्त हुए और अपने वर्तमान वैभव का त्याग करके निःसंग हो प्रव्रजित हुए। (८६) इस प्रकार मुनि की स्तुति करके दशानन अपनी युवती स्त्रियों के साथ जिनमन्दिर में गया और वहाँ बड़ी भारी पूजा की। (८७) इसके पश्चात् चन्द्रहास नामक तलवार के द्वारा अपनी भुजा काटकर उसकी शिराओं से वीणा के तार जोड़कर उसने भक्तिभाव से पूर्वक वीणा बजाई। (८८) इसके पश्चात् शुभ एवं पवित्र अक्षरों से वह जिनचन्द्र की स्तुति करने लगा और सातों स्वरों का जिसमें उपयोग किया गया है ऐसा गीत विधिपूर्वक गाने लगा कि चिरकाल से उत्पन्न मोहरूपी अन्धकार को जिसने केवल ज्ञानरूपी किरणोंसे सर्वदा नष्ट किया है ऐसे उस ऋषभ जिनरूपी सूर्य Paumachariyam - -620

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