Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 001 to 087
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 55
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth भगवान् का निर्वाण । वृत्त, यस्र तथा चतुरस्र-इन आकृतियों वाली तीन चिताओं का निर्माण। एक चिता तीर्थङ्कर के लिए, एक इक्ष्वाकुवंशीय अनगारों के लिए तथा एक शेष अनगारों के लिए। सकथाहनु (दाढा), स्तूप तथा जिनगृह का निर्माण। याचक और आहिताग्नि ।* आदसघरपवेसो, भरहे पडणं च अंगुलीयस्स। 'सेसाणं उम्मुयणं ५३, संवेगो नाण दिक्खा य५।। आदर्शगृह में भरत चक्रवर्ती की अंगुलि से अंगुठी नीचे गिर गई। अंगुलि की अशोभा को देख, उसने सारे आभूषण निकाल दिए। संवेग से कैवल्य की उपलब्धि और प्रव्रज्या का स्वीकरण । * ऋषभ का निर्वाण : अष्टापद पर्वत पर भगवान् ने छह उपवास की तपस्या में पादोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया। भरत ने जब यह समाचार सुना तो शोक-संतप्त हृदय से पैदल ही अष्टापद पर्वत की ओर दौड़ा। उसने दुःखी हृदय से भगवान् को वंदना की। उस समय शक्र का आसन चलित हुआ। अवधिज्ञान से उसने सारी स्थिति को जाना। भगवान् के पास आकर अश्रुपूर्ण नयनों से उसने भगवान् की वंदना एवं पर्युपासना की। उस समय वे अनेक देवी-देवताओं से संवृत्त थे। छट्ठमभक्त में दस हजार अनगारों के साथ भगवान् निर्वाण को प्राप्त हो गए। भगवान् का निर्वाण होने पर शक्र ने देवों को आदेश दिया- 'नंदनवन से शीघ्र ही गोशीर्ष चंदन लाकर चिता की रचना करो। गोलाकार आकृति वाली चिता पूर्व दिशा में निर्मित करो, वह तीर्थंकर ऋषभ के लिए होगी। एक व्यंस आकार वाली चिता दक्षिण दिशा में निर्मित करो, जो इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न अनगारों के लिए होगी। एक चतुरस्र चिता उत्तर दिशा में निर्मित करो, जो शेष अनगारों के लिए होगी।' देवताओं ने उसी रूप में चिताओं का निर्माण किया। इसके पश्चात् इन्द्र ने आभियोगिक देवों को बुलाकर उन्हें आदेश दिया- 'शीघ्र ही क्षीरोदक समुद्र से पानी लेकर आओ। देवताओं ने उस आदेश का पालन किया। तब शक्र ने तीर्थङ्कर के शरीर को क्षीर समुद्र के पानी से स्नान करवाया। स्नान कराकर श्रेष्ठ गोशीर्ष चंदन का शरीर पर लेप किया। भगवान् को श्वेत वस्त्र धारण करवाए तथा सब प्रकार के अलंकारों से उनके शरीर को विभूषित किया। इसके पश्चात् भवनपति और व्यंतर देवों ने गणधर और शेष अनगारों के शरीर को स्नान करवाकर अक्षत देवदूष्य पहनाए। तब इन्द्र ने भवनपति और वैमानिक देवों को आदेश दिया कि अनेक चित्रों से चित्रित शिविकाओं का निर्माण करो। एक भगवान् ऋषभ के लिए, एक गणधर के लिए तथा एक अवशेष साधुओं के लिए। देवताओं ने आदेश के अनुसार शिविकाओं का निर्माण कर दिया। इन्द्र ने भगवान् के शरीर को शिविका में ले जाकर दुःखी हृदय और अश्रुपूर्ण नयनों से चिता पर स्थापित किया। अनेक भवनपति और वैमानिक देवों ने गणधरों और शेष अनगारों के शरीर को चिता पर रखा। तब इन्द्र ने अग्निकुमार देवों को बुलाकर तीनों चिताओं में अग्निकाय की विकुर्वणा करने का आदेश दिया। अग्निकुमार देवों ने मुख से अग्नि का प्रक्षेप किया तभी से जगत् में प्रसिद्ध हो गया कि 'अग्निमुखाः वै देवाः।' वायुकुमार देवों ने वायु की विकुर्वणा की, जिससे अग्नि तीव्र गति से प्रज्वलित हो सके । इन्द्र के आदेश से भवनपति देवों ने चिता में अगुरु, तुरुष्क, घृत, मधु आदि द्रव्य डाले, जिससे शरीर का मांस और शोणित जल जाए। मेघकुमार देवों ने क्षीरसागर के पानी से चिता को शान्त किया। ५३. सेसाण य ओमुयणं (स्वो)। ५२. अंगुलेयस्सस (स्वो), अंगुलेज्जस्स (को)। ५४. स्वो ३१९/१७८४। ___ * देखें परि. ३ कथाएं । - 15 - Aavashyak Niryukti

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