Book Title: Arihant
Author(s): Divyaprabhashreji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 9
________________ प्रयोजन-अभाव के कारण लौटकर पुनः कभी संसार में नहीं आते हैं। इनके लिये देवदूत या देवपुत्र की कल्पना असंगत है क्योंकि ये तो देवों के पूज्य, आराध्य और उपास्यरूप देवाधिदेव की अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं। प्रस्तुत महानिबन्ध में तीन खंड और ९ अध्याय हैं। शब्द-दर्शन, संबंध-दर्शन और स्वरूप-दर्शन। प्रथम खंड में अरिहंत शब्द की समीक्षा, व्युत्पत्ति, विश्लेषण, व्याख्या तथा इसकी प्राचीनता सिद्ध कर आगम, प्राचीन जैन शिलालेख, आगमेतर और जैनेतर साहित्य में यह शब्द किस समय कैसे प्रयुक्त हुआ था, उसका स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। दर्शन . क्षेत्र में जैन-दर्शन की अरिहंत सम्बन्धी मान्यता और साथ ही भारतीय दर्शन के .. अनुसार ईश्वर सम्बन्धी विचारधारा की विभिन्न मान्यताएं प्रस्तुत की गई हैं। दूसरे खंड में तीन अध्याय हैं। इसके प्रथम एवं द्वितीय अध्याय में वैज्ञानिक संदर्भो से अरिहंत की आवश्यकता समझाई गयी है। कम से कम प्रवृत्ति द्वारा अधिक से . अधिक शक्ति सम्पादित करने के विशेष प्रयोग हमें अरिहंत द्वारा मिले हैं। सृष्टि के . प्रति अरिहंत का यह अत्युत्तमं विशिष्ट योगदान संसार का एक अनोखा रहस्य है। हम जो कुछ करते हैं-खाना, पीना, चलना आदि। इन प्रत्येक प्रवृत्ति के विधान हैं एवं प्रत्येक विधानों के विविध परिणाम हैं। तीसरे अध्याय में अरिहंत की आराधना के कारण, विधि एवं संबंध बताकर मंत्रचैतन्य की आवश्यकता और उसके द्वारा जप में प्रतिष्ठा की विधि बताई है। अरिहंत ध्यान के द्वारा आर्हन्त्य को प्रकट करने की विधि एवं सिद्धान्त भी इसमें प्रस्तुत हैं। चतुर्थ अध्याय में आराधक से आराध्य बनने के विविध स्थान और इस पद की प्राप्ति के उपाय और कारण दर्शाये हैं। इन कारणों में प्रत्येक कारणं की अपनी विशिष्टता हैं। तथाप्रकार के भव्यत्व वाले साधक आत्माओं को इसके एक या अन्य अथवा सर्व कारणों की उपासना आवश्यक है। कारणों में प्रथम सात तो वात्सल्य के हैं और शेष ज्ञान-दर्शन और चारित्र के प्रतिपादक हैं। ___अब आता है अंतिम खंड-अरिहंत स्वरूप दर्शन। इस में पांच अध्ययनों द्वारा क्रम. से अरिहंत की पांच विशिष्ट अवस्थाओं का क्रमबद्ध विस्तृत वर्णन है। अन्य मनुष्यों की भाँति अरिहंत भी माता के गर्भ में आते हैं, जन्म लेते हैं, गृहवास भी करते हैं, राज्य भी चलाते हैं, कुछ शादी-विवाह भी करते हैं; परन्तु उनका सब कुछ अन्य मनुष्यों की अपेक्षा लोकोत्तर और साथ ही आसक्ति रहित होता है। इसका महत्वपूर्ण कारण उनकी पूर्व जन्म की उत्कृष्ट आराधना है। अरिहंत बनने के पूर्व तृतीय भव में साधकरूप में ये विशुद्ध सम्यग्दर्शन और निरतिचार शील-संयम को पालते हैं। ज्ञान और वैराग्य में [८]

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