Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 11
________________ श्रोता की खोज में हठात् शची और शक्रेन्द्र का अटूट आलिंगन टूट गया । उनकी शैया में यह कैसा भूकम्प है ? ' और जाने कब वे एक-दूसरे से छिटक कर अपने कल्पकाम शयन कक्ष दो विरोधी छोरों पर, आमने-सामने खड़े हो गये । वे जैसे एक-दूसरे को पहचान नहीं पा रहे हैं। वे नये सिरे से एक-दूसरे को साक्षात् कर रहे हैं. और पहचान रहे हैं । अपूर्व सुन्दरी है आज की यह शची । अपूर्व सुन्दर है आज का यह शक्रेन्द्र तो फिर आलिंगन क्यों टूट गया ? 'देहों के आलिंगन की सीमा आ गई ? तो क्या इससे आगे का भी कोई आलिंगन है ? क्या कोई ऐसा मिलन भी है, जिसमें विच्छेद नहीं ? जिसमें वियोग नहीं ? क्षणार्द्ध से भी कम, एक समय मात्र में ये प्रश्न उनके भीतर से गुज़र गये । और वे और भी उद्दीप्त, और भी जाज्वल्य हो कर एक-दूसरे को पूछते-से ताक रहे हैं । उनकी देहों में ख़ामोश बिजलियाँ कड़क रही हैं। रोमांच के असह्य हिलोरे आ रहे हैं । 'अरे यह क्या, कि उनकी शैया जैसे झंझा के झकोरों में पर्वत की तरह काँप रही है । उनका वह विलास कक्ष और उसका समूचा ऐश्वर्य मानो एक वात्याचक्र में उलट-पलट कर ऊभचूभ हो रहा है । उनके पैरों तले की धरती धूजती हुई, नीचे धसकती जा रही है । माथे पर का आकाश जैसे हट गया है । वे कहाँ खड़े रहें, कैसे खड़े रहें ? पुरानी धरती छिन गई, पुराने आधार लुप्त हो गये । अरे कोई नयी धरती, कोई नये आधार कहीं हैं ? और वे दोनों अधर में छटपटा रहे हैं । • और तब इन्द्र ने अपने अस्तित्व के बारे में आश्वस्त होना चाहा । उसने अपनी स्वर्गपति सत्ता का आधार खोजना चाहा । "वह झपटता हुआ अपनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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