Book Title: Anusandhan 2016 05 SrNo 69
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 8
________________ मार्च - २०१६ कवि-श्रीरूपचन्द्रजी-रचित वियोगिनीछन्दोबद्धा विज्ञप्तिद्वात्रिंशिका - सं. मुनि सुयशचन्द्रविजय गणि मुनि सुजसचन्द्रविजय स्तोत्र साहित्य पोताना आराध्य के पूज्य प्रत्येनी स्वहृदयभावोनी अभिव्यक्तिनुं श्रेष्ठ माध्यम छे. साहित्यना विशिष्ट अङ्ग समा आ स्तोत्रोमां कोईकवार तेमना गुणो गावा द्वारा, कोई वार तेमना देहनुं वर्णन करवा द्वारा, तो कोईकवार आत्मनिन्दाना माध्यमे तेमनी स्तुति-स्तवना करवामां आवे छे. विविधभाषानिबद्ध - विविधछन्दोमय लघु के दीर्घ आवी अनेक कृतिओ जैन-जैनेतर सम्प्रदायमां प्राप्त थाय छे. प्रस्तुत रचना आवी एक लघु कृति छे. तेमां आत्मनिन्दा करतां करतां श्रीशत्रुजयगिरिनायक 'श्रीऋषभदेव'प्रभुनी स्तवना करवामां आवी छे. कृति खरेखर खूब रसाळ छे. तेमानां केटलांक पद्यो तो खूब हृदयङ्गम छे. ओ काव्यना शब्दोभावो हृदय नहीं, पण नाभिमांथी नीकळ्या होय तेवू लागे छे. क्रोधादि ४ कषायने आश्रयीने कवि लखेला भावो - ... (श्लो. १३) - हे जगत्श्रेष्ठ! आपना क्षमारूपी आवरण(कवच) तळे मने प्रवेश(स्थान) आपो. अन्यथा, आ क्रोध रूपी सिंह बकरीना बच्चा जेवा मने खेंची जशे (मारी नाखशे). (श्लो. १४) - हे सर्वज्ञ! हे वैद्यवर! मारो आ देह मानरूपी रोगथी घेरायो(हरायो) छे. आप मने मृदुतारूपी अमृतनुं पान करावो जेथी हुं अव्यय (अमर) थई जाउं. (श्लो. १५) - हे प्रभु! जेम करोळियो पोते जाळु बनावे छे अने तेमां ज फसाय छे, तेम में पण आत्मवंचनारूपी जाळु गुथ्युं छे. हुं तेमां बन्धाउं-फसाउं नहीं ते माटे आप ते जाळाने ऋजुतारूपी दण्डथी तोडी नाखो. (श्लो. १६) - लोभरूपी अग्निना तापथी दाझेलो हुं घणो व्याकुळ थई गयो छु. हे जिन! आपं निर्ममता (निर्ममत्व) रूपी मेघजलनी वृष्टिथी मारी आकुळताने दूर करो. सम्पूर्ण कृति 'वियोगिनी'छन्दमां रचायेल छे. प्रिय-वियोग आ छन्दमां

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