Book Title: Anusandhan 2010 12 SrNo 53
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
छे. छतांय शुद्ध पाठना आधारे थतुं अर्थघटन तेनाथी जुदं होय तेमां बेमत नहीं. श्लोक ७३मां 'तथाऽप्रवृत्तिबुद्धयाऽपि' एवो अशुद्ध पाठ अने तेनी खण्डित टीकाने आधारे थयेवं विवेचन केटलुं परिवर्तनीय छे ते संशोधितपूर्णपाठने जोया पछी स्वतः समजाय तेवू छे. श्लोक ३२मां 'सर्वत्रैव'नो 'दीनादौ' अर्थ भले संगत थई जतो होय, पण हरिभद्रसूरिजी 'हीनादौ' थी जे सूचववा मांगे छे ते केटलुं महत्त्वपूर्ण छे ! श्लोक-१६नी टीकामां 'भगवदवधूत' नामना स्थाने 'भगवद्दत्त' के 'भगवदन्तवादी' व. भ्रमपूर्ण वांचनने लीधे इतिहासादिविषयक ग्रन्थोमां थयेला उल्लेखो पण बदलवा पडे तेम छे. ढूंकमां, योगदृष्टिसमुच्चयना तमाम अभ्यासीओए आ सम्पादन अवश्य ध्यान पर लेवा जेतुं छे.
अन्ते, आ पुस्तकना प्रतिभावरूपे विद्वान् मुनिराज पूज्य श्रीधुरन्धरविजयजी म. ए लखेला पत्रनो केटलोक अंश उद्धृत करीश के जेमां घणुं बधुं समाई जाय छे : "योगदृष्टि मळ्युं. सरस कार्य कर्यु.... जे व्यक्ति गीतार्थ नथी, छेदना ज्ञानथी पूरा मार्गना उत्सर्ग-अपवाद जाण्या नथी, ते आ ग्रन्थोनो उपयोग श्रोताओने हताश थई जाय तेवा ज विचार-प्रवचन फेलाववामां करे छे. आ योगग्रन्थो पूर्वगतश्रुतना अंशो छे. आना उपर अधिकारी व्यक्ति सामे वाचना थई शके. व्याख्यानमां तो बालजीवोनी अधिकता होवाथी आ ग्रन्थो ना लेवा जोइए एवं मारुं मानतुं छे. अशुद्ध ग्रन्थोना आधारे अशुद्ध प्ररूपणा थाय तेनुं मार्जन कोण करशे ?"
ग्रन्थ - योगदृष्टिसमुच्चयः सटीकः कर्ता - श्रीहरिभद्रसूरिजी सं. - आ. श्रीशीलचन्द्रसूरिजी प्र. - जैनग्रन्थप्रकाशनसमिति - खम्भात, २०६६ प्राप्ति - सरस्वती पुस्तक भण्डार,
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-१
श्री विजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर, १२, भगत बाग, पालडी,
अमदावाद-७

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