Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 09
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 99
________________ 94 उज्जित सत्तुंजओ सुतारणु थंभणउ रच्चाविया । धर जाव सुरगिरि भुवण ससाय वहइ गंगतरंग ए अर्णर्णर्ण मंगलु सूरि जिणेसरसूरि सुहमउप्पम छज्जए ॥४॥ ॥ इति श्री जिनेश्वरसूरिकुंडलिया-काव्य; समाप्ता तिरियं महं. सज्जन श्रावकस्य ॥ महं. सज्जनश्रावक कृत श्रीजिनप्रबोधसूरि-नाराचबंधछंद जु वीरनाह पाय पट्टभत्तिचंगजुगवरो जु नवहभेय बंभचेरगुत्तिगुत्तु गणहरो । सुहमसामि जंबुसामि चरणकमल महुयरो सु सुयणवन्नि जिणपबोहसूरिराउ जुगवरो ॥१॥ जु सतरभेय संजमस्स पालणो पवत्तए जु दसहभेयज इह धम्म नय विचित्तु पालए । पंचसमिति तिन्निगुपति सुद्धसीलसुंदरो सु सुयणवन्ने(नि) जिणपबोहसूरिराउ जगवरो ॥२॥ जु गच्छ पवर मुणिहि माहि लीह पामए जु गुरुय पंचवयह भारु लीलमत्त धारए । सहसअट्ठदसह-सील-अंग जोय धुरंधरो सु सुयणवन्नि जिणपबोहसूरिराउ जुगवरो ॥३॥ जु पउमसेय लेस सेह अंगसोहए जु चउकसाय दलिवि दप्पु सुविहि मग्गु जोयए । जु जमिय वाणि भविय नाणि बोहए मुणीसरो सु सुयणवन्नि जिणपबोहसूरिराउ जुगवरो ॥४॥ ।। इति श्रीजिनप्रबोधसूरिनाराचछंद, समाप्ता कृतरियं महं० सज्जनश्रावकस्य ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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