Book Title: Anupeha
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 13
________________ 11 कृति रचना का नाम कवि ने स्वयं 'अणुपेहा' (दो. ४५) (= सं. अनुप्रेक्षा) या 'दो-दह-अणुपेहा' (दो. २) अर्थात् 'द्वादश अनुप्रेक्षा' बताया है । रचना का प्रमाण ४५ दोहे हैं । कृति के आरभ में मंगलरूप पहला एक दोहा है । दूसरे दोहे में अनुप्रेक्षा का महत्त्व बताया गया है । तथा अन्तिम दोहे में उपसंहार तथा कर्ता का नामनिर्देश किया है। विषय तथा निरूपण को विषय की दृष्टि से देखें तो जीवनशुद्धि में विशेष उपयोगी बारह विषयों चुनकर उनके चिन्तन को बारह अनुप्रेक्षाओं के रूप में गिनाया गया है । अनुप्रेक्षा को भावना भी कहते हैं । भावना ही पुण्य-पाप, राग- वैराग्य, संसार व मोक्ष आदि का कारण है, अतः जीव को सदा कुत्सित भावनाओं का त्याग करके उत्तम भावनाएँ भानी चाहिए । महर्षि पतंजलि ने 'योगदर्शन ' ( व्यास भाष्य) में भावना को नदी की धारा से उपमित किया है "चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी ।" अर्थात् चित्त रूप नदी दोनों ओर बहती है- ऊपर भी, नीचे भी, शुभ में भी, अशुभ में भी । नदी की धारा को जिधर मोड़ दिया जाय, उधर ही उसका प्रवाह होने लगता है। इसी प्रकार भावना I है । यदि भावना का प्रवाह शुभ चित्तवृत्तियों से प्रेरित रहा, उच्च और पवित्र भावों के साथ चलता रहा तो वह जीवन में सुख और शान्ति का उपवन खिला देगी । यह विषय बहुत महत्त्व का जैन परंपरा में रहा है । जैन तत्त्वों के अनुचिन्तन की यह परंपरा ठेठ आगम से शुरु होती है । आगम में सबसे प्राचीन 'आचारांग' ही माना जाता है । 'आचारांग' के अन्त में भावनाओं का वर्णन है। उसके पश्चात् ‘उत्तराध्ययन सूत्र' में बारह भावनाओं का वर्णन किया गया । बादमें प्रकीर्णक इत्यादि में भावनाओं का वर्णन मिलता है । दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में विविध भाषाओं में अनुप्रेक्षा या भावना को लेकर बहुत सी रचनाएँ हुई है । 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' प्रो.

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