Book Title: Anupeha
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 21
________________ 19 (८) पांच इन्द्रियों से, निबद्ध वह जीव पांच प्रकार से भ्रमण करता है, जब तक वह स्पष्ट रूप से आत्मा को नहीं जानता - ऐसा योगी लोग कहते हैं। एकत्व भावना (९) वह जीव अनेक गुणों का आश्रय रूप अकेला ही है । दूसरा कुछ (उसका संगी साथी) नहीं है । वह मिथ्या दर्शन से मोहित होकर चार गतियों में भ्रमण करता है। (१०) यदि जीव सम्यक् दर्शन पाता है तो वह पर-भाव का त्याग करता है । वह अकेला शिव-सुख को पाता है । ऐसा जिनवर कहते हैं । अन्यत्व भावना ' (११) हे जीव ! शरीर को तू अन्य समझ और आत्मा को (केवल) अन्य समझ । इसी कारण दूसरे सभी को तू त्याग दे। और आत्मा का तू स्वयं मनन कर। (१२) जैसे काष्ट को जलाने के लिये स्पष्ट रूप से अग्नि होता है- वैसे (लोग) समझते हैं। इसी तरह कर्मों को जलाने के लिये हे भव्य ! आत्म के सिवाय दूसरा कोई नहीं होता । अशुचि भावना (१३) ............ पुद्गल भी कृमी कुल के कीडे और अशुचि का वास होता है। इसी कारण यदि ज्ञानी भव के पार्श्व को तोडना चाहता है, इससे. मुक्त होना चाहता है तो उसमें आसक्ति क्यों रखे। (१४) यदि तू शरीर अशुचि है ऐसा जानता है तो आत्मा निर्मल है ऐसा जान । इसी कारण अशुचि पुद्गल का तू त्याग कर। ऐसा ज्ञानी कहता है। आश्रव भावना (१५) हे मुनि जो अपने स्वभाव को छोडकर अन्य भाव.... उसको तू आश्रव जान ऐसा जिनवर कहते हैं ।

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