Book Title: Anukampa Author(s): Ratanchand Chopda Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha View full book textPage 7
________________ जैन धर्म और अनुकम्पा : अनुकम्पा ही विश्व का स्व-पर कल्याणकारी भूल सत्व । भात्मिक उत्थान के लिये तो यह अनिवार्य है। अनुकम्पा का महत्व हृदय में सीधे बैठ जाता है। हम अपनी सुखासाधना मेव्याघात नहीं चाहते ; अन्य प्राणियोंके इसी भाव की कल्पनाम्में सपाका सद्गम है। प्रत्येक धर्म मत ने आनुकम्पा को कड़ी होट सेकला है। अनुकम्पा या दया जैन धर्मका-तो प्राणही है। मित श्लोक इन्हीं भावों की प्रतिष्वनि है। या महानदी तीरे सर्व धर्मास्तणाकुराः । तस्था शोषमुपेतायां कियन्नादन्ति ते चिरम् ।। 'सच तो यह है कि दया ही आत्म गुणों का पोषक तत्व है। . यों तो प्रत्येक धर्म दया का झण्डा ऊँचा उठाये रखने का दावा करता है - वेद परम्परा ने भी घोषित किया है, "मा.हंतव्यानि सर्व भूतानि" - पर दया के ऊपर जैन दर्शन के जोड़ का गहन एवं विस्तृत विवचन अन्य स्थानों में नहीं मिलता। अधिकतर तो ऐसे विवेधन की आवश्यकता ही नहीं अनुभव करते। दया तो जीवन में उतारने की वस्तु है, न कि चर्चा की। ठीक, खूब ठीक। पर किसी तत्व को पूरी तरह समझे बिना हम उसको पूरी तरह काम में भी तो नहीं ला सकते। जैन धर्म की यह विशेषता है कि इसने केवल दया की महिमा ही न गाई है पर इस मूल तत्व पर भिन्न-भिन्न दृष्टियों से बड़ा स्पष्ट प्रकाश डाला है-दया के विभिन्न पहलुओं को समझाने की स्तुत्य चेष्टा की है। यहाँ यह कह देना भी अप्रासंगिक न होगा कि दया सम्बन्धी विवेचन मैन दर्शन की दार्शनिक गुत्थियों के तार तार खोलने की विशिष्ट प्रवृत्ति की मी सष्टकरता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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